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अब से ठीक पचास साल पहले देश में एक अदभुत घटना घटी थी
राकेश कुमार मालवीय
अब से ठीक पचास साल पहले देश में एक अदभुत घटना घटी थी. सन 1972 की 14 अप्रैल से लेकर 17 अप्रैल तक देश के सबसे खूंखार कहे जाने वाले बागियों ने अपनी बंदूकें गांधी के चरणों में अर्पित कर दी थीं. गांधी के बाद विनोबा और विनोबा के बाद जेपी ने इन बागियों के हृदय परिवर्तन में एक अलौकिक शक्ति पुंज की तरह काम किया. इस प्रहसन ने सत्य और अहिंसा को समाज में स्थापित किया और न केवल सामाजिक तौर पर शांति स्थापना की एक कोशिश हुई बल्कि इन बागियों को भी एक बेहतर दुनिया में जीने का मौका दिया. इस पहल के मार्फत ही बीहड़ों की कई दशकों की समस्या हल हो सकी.
आज हम देखते हैं कि हिंसा का वातावरण बढ़ता ही जा रहा है. देश के कई इलाके नक्सलवाद सहित कई समस्याओं से दो चार हो रहे हैं, ऐसे में शांति और अहिंसा की पहल उस तरह से सामने नहीं आ रही हैं, जो कि पचास साल पहले बागियों के आत्मसमर्पण सरीखी हों. बागियों की समस्याओं का हल तो हो गया, लेकिन लगभग उसी दौर में शुरू हुए नक्सलवाद सरीखी समस्या को उसी तरह हल करने की कोशिश नहीं हुई, यही कारण है कि नक्सलवाद लगातार बढ़ रहा है, बल्कि पिछले दिनों यह भी खबर आई कि मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले का एक बड़ा हिस्सा अब उनके प्रभाव में है. यह सुखद संकेत नहीं हैं.
एक बार फिर यह याद करने की जरूरत है कि चंबल के बीहड़ों के डाकुओं ने कैसे गांधी के चरणों में अपनी बंदूकें अर्पित कर दी थीं ? आत्मसमर्पण के वक्त के सारे विवरण एक पुस्तक 'चम्बल की बंदूकें गांधी के चरणों' में ख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र और श्रवण गर्ग ने दर्ज किया है.
माधोसिंह एक कुख्यात बागी था, उसके सिर पर डेढ़ लाख का इनाम रखा गया था. जेपी की कोशिशों से माधोसिंह ने भी आत्मसमर्पण किया था. किताब के लेखकों ने जब माधोसिंह से लंबी बातचीत की तो उसने एक दार्शनिक की तरह सवालों के जवाब दिए थे.
जब बागी माधोसिंह से पूछा गया कि 'आप बागी क्यों बने ?' माधोसिंह का जवाब था कि 'पुलिस का भ्रष्टाचार और गांव में दो पार्टियों की लड़ाई. इनमें एक अमीर है और दूसरी गरीब. झगड़े होंगे तो अमीर आदमी पुलिस को पैसा दे देगा, पुलिस अपना कर्तव्य नहीं समझकर गरीब की हड्डी तोड़ देगी. उस पर बीसियों केस लगा देगी. ऐसे में गरीब आदमी पुराने डाकुओं के पास चला जाएगा. गरीब के पास वकील के लिए पैसा नहीं होगा, जेल में सड़ने से अच्छा है, पुराने डाकुओं के पास चला जाए, यहां भी मरेगा या वहां मरेगा. कई लोग यहां मरने से बेहतर डाकुओं के साथ रहकर मानते हैं और गिरोह में शामिल हो जाते हैं.'
माधोसिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. गांव में झगड़ा हुआ तो 12 केस लाद दिए गए. उसे मारने के लिए फरमान जारी कर दिए गए. लोग उसकी तलाश में फिरने लगे. इसी स्थिति में वह बागियों के पास पहुंचा और फिर एक ऐसा बागी बना जिसका नाम चंबल के बीहड़ों में गूंजता था.
माधोसिंह के मुताबिक 'डाकू समस्या का सबसे कारण पुराने बागी हैं. जब अमीर गरीब को जीने नहीं देता, रहने नहीं देता, पुलिस अपने कर्तव्य भूल जाती है, चंद पैसों के लिए एक डाकू पैदा हो जाता है. वह मानता था कि इस इलाके में अमीर—पुलिस के प्यार का जो फल है वह डाकू है.'
उसने कहा था कि 'डाकू जो कुछ भी करता है, जो कुछ भी कहता है वो अपने आप नहीं कहता है. उसे जैसे नचाया जाता है, वैसे ही वह नाचता रहता है. समाज के दूसरे लोग जैसे नचाएंगे वे नाचते रहेंगे. तो आप सोच लीजिए इनमें कौन कौन फायदा उठा सकता है. राजनीतिक पार्टियां शामिल हो जाती हैं, कुछ बड़े पैसे वाले भी शामिल हो जाते हें, कुछ संबंधी रिश्तेदार भी शामिल हो जाते हैं. केवल लाभ उठाने के लिए हम लोग नाचते रहते हैं दूसरे के हाथों में. इसमें सब लोग फायदा उठाते रहते हैं.'
'कोई भी डाकू इस जीवन को एक साल तक अच्छा मानता है. उसके बाद नहीं मानता. एक साल बाद वह सोचने लगता है कि यहां पर जो कुछ भी हो रहा है वह बुरा है. हमें नहीं करना चाहिए और दूसरों को भी नहीं कराना चाहिए.'
बागियों की समस्या की दृष्टि भी उसके पास थी. डाकू माधोसिंह ने लेखकों को इस समस्या से निपटने का हल भी सुझा दिया था. उसका कहना था कि 'सरकार यदि तीन साल डाकुओं का आत्मसमर्पण करवा ले, और पुलिस के छोटे अफसरों का भ्रष्टाचार बंद कर दे. क्षेत्र में विकास करे, स्कूल, खेत पानी. किसी के पास पांच सौ बीघा है और किसी के पास दो ही बीघा है, (उसका इशारा गैर बराबरी की तरफ था.) अभी पचास-पचास मील दूर स्कूल नहीं है. अगर इन बातों को सरकार ठीक कर दे तो तीन साल में डाकू का नाम नहीं रहेगा.'
पचास साल की इस यात्रा को हम आज अपने संदर्भों में देखें तो यह चुनौतियां अब भी बरकरार ही हैं जिनके बारे में एक आत्मसमर्पित डाकू बात कर रहा था. पहला भ्रष्टाचार. आज सुशासन के हजारों दावे किए जाते हैं, लेकिन जब तक अखबार में आई हुई खबरें बता देती हैं कि भले ही भ्रष्टाचार पहले से कम हुआ हो, लेकिन खत्म तो नहीं ही हुआ है. आम आदमी का बिना—लिए दिए सरकारी विभागों से एक छोटा सा भी काम करवाना मुश्किल पड़ जाता है. अमीरी—गरीबी की खाई के आंकड़े और भयानक हो रहे हैं.
आक्सफेम की रिपोर्ट चेतावनी देती रहती हैं कि देश की दौलत चंद हाथों में सिमट रही है और अब कई इलाके अब भी विकास की राह देख रहे हैं. जिन इलाकों में असंतोष है उनका भी यही तर्क होता है कि उन्हें विकास से वंचित रखा गया है, वहां पर स्वास्थ्य और शिक्षा की अच्छी और सस्ती सुविधाएं नहीं हैं. हमें इस वक्त ठहरकर यह सोचना चाहिए कि क्या वाकई यह स्थिति है, और यदि उसमें करने की थोड़ी भी गुंजाइश बाकी है तो उस तरफ कदम बढ़ा देने चाहिए.
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