सम्पादकीय

50 साल पहले : द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का पुनर्जन्म

Neha Dani
19 Dec 2021 12:48 AM GMT
50 साल पहले : द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का पुनर्जन्म
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पचास साल बाद उस सिद्धांत का एक संस्करण उसी देश भारत में फल-फूल रहा है, जिसने शुरुआत में ही उस सिद्धांत को खारिज कर दिया था।

इस महीने हमने पूर्व पाकिस्तान के खात्मे की पचासवीं बरसी मनाई। हालांकि मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने अप्रैल, 1971 की शुरुआत में ही 'बांग्लादेश की अस्थायी सरकार' की घोषणा कर दी थी, भारत सरकार ने छह दिसंबर को इस सरकार के अस्तित्व को औपचारिक रूप से मान्यता दी। 16 दिसंबर को लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी की अगुआई में ईस्ट पाकिस्तान आर्मी ने भारतीय सेना के समक्ष समर्पण कर दिया। इसके कुछ हफ्तों बाद शेख मुजीबुर रहमान को जेल से रिहा किया गया और वह एक नए देश की कमान संभालने के लिए ढाका लौट गए।

बांग्लादेश के जन्म का भारत में तीन भिन्न नजरियों से व्यापक जश्न मनाया गया। जश्न मनाने वाला एक समूह था प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के उत्साही राजनीतिक समर्थकों का (उस समय तक भक्त शब्द ईजाद नहीं हुआ था) जो कि इसे, उनके दृष्टिकोण, उनके साहस, उनकी दूरदर्शिता और राजनेता के रूप में उनकी शख्सियत की व्यापक पुष्टि बता रहे थे। एक दूसरे समूह में राष्ट्रवादी शामिल थे, जिन्होंने पाकिस्तान पर जीत को 1962 में चीन के हाथों हमारी अपमानजनक सैन्य हार की दर्दनाक यादों को मिटा देने के रूप में देखा। जश्न मनाने वालों का एक तीसरा वर्ग भी था, जो 1971 की जीत को सैन्य जीत के बजाय विचारधारा या नैतिक संदर्भों में अधिक देख रहा था। इन भारतीयों का मानना था कि बांग्लादेश का जन्म पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा प्रचारित और लाए गए दो-राष्ट्र सिद्धांत की अंतिम अस्वीकृति थी।
अगस्त, 1947 में जब विभाजन अपरिहार्य हो गया था, तब गांधी और नेहरू दोनों ने, अपनी राजनीतिक और व्यक्तिगत पूंजी यह सुनिश्चित करने में लगा दी थी कि सीमा पार अल्पसंख्यकों के साथ जो भी हो, भारतीय राज्य और सत्तारूढ़ दल धार्मिक अल्पसंख्यकों को पूर्ण नागरिक अधिकार प्रदान करेंगे। भारतीय गणराज्य जिन्ना के इस दावे को खारिज कर देगा कि हिंदू और मुसलमान एक राष्ट्र की क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर साझेदारी में नहीं रह सकते।
चलिए 1971 की जीत का जश्न मनाने वाले इस तीसरे समूह को हम सांविधानिक देशभक्त नाम देते हैं। गांधी और नेहरू की परंपरा में काम करने वाले इन भारतीयों के लिए ऐसा नहीं था कि पाकिस्तान हार गया था, बल्कि बहुलतावाद और धर्मनिरपेक्षता की जीत हुई थी। जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग जैसी उम्मीद कर रहे थे, उसके उलट इस्लाम धर्म पाकिस्तान के पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों को जोड़े रखने में नाकाम साबित हुआ था। उल्लेखनीय है कि बंगाली पहचान ने, जिसने बांग्लादेश के संस्थापकों को प्रेरित किया था, धर्म के आधार पर भेदभाव की कोशिश नहीं की। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी दस फीसदी से अधिक थी (जबकि पश्चिमी पाकिस्तान में दो फीसदी से भी कम)। और, पश्चिमी पाकिस्तान के उलट पूर्वी पाकिस्तान के सार्वजनिक जीवन में हिंदू प्रभावशाली बने हुए थे। अनेक हिंदुओं ने बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनमें सैन्य कमांडर जीबन कानाई दास और चित्तरंजन दत्त और वरिष्ठ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता मोनी सिंह शामिल थे।
दूरदर्शी वकील कमल हुसैन द्वारा तैयार किए गए बांग्लादेश के पहले संविधान ने 1972 में घोषणा की कि नया गणराज्य धर्मनिरपेक्षता द्वारा निर्देशित होगा, जिसमें सभी धर्मों के समान अधिकार होंगे। दुखद है कि 1975 में मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद उस देश में इस्लामी व्यग्रता का उभार हो गया। जनरल इरशाद के सैन्य शासन के समय 1986 में एक संशोधन के बाद इस्लाम को बांग्लादेश का आधिकारिक धर्म घोषित कर दिया गया। सत्तारूढ़ अवामी लीग और उसके नेताओं ने कई मौकों पर मूल संविधान की ओर लौटने की बात की है, लेकिन या तो वे इच्छुक नहीं हैं या फिर ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। अपनी स्थापना के पचास वर्षों में बांग्लादेश ने आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से बहुत प्रगति की है।
अहम संकेतकों, मसलन मानव स्वास्थ्य, कार्यबल में महिलाओं का प्रतिशत और जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी के संदर्भ में यह भारत से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। पिछले वर्ष इसकी प्रति व्यक्ति आय भारत से अधिक थी। लेकिन, राजनीतिक और धार्मिक दृष्टि से यह देश अपने संस्थापकों के दृष्टिकोण पर खरा नहीं उतरा। अल्पसंख्यक निरंतर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, वहीं लेखकों और बुद्धिजीवियों पर हमले हुए हैं। वहीं, 1971 के उलट भारतीय आज ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि वे बांग्लादेशियों को सहिष्णुता और बहुलतावाद पर उपदेश दें।
मई, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से सत्तारूढ़ दल ने आक्रामक तरीके से हिंदू बहुसंख्यक एजेंडे को आगे बढ़ाया है। सितंबर, 2015 में अखलाक की लिंचिग से लेकर दिसंबर, 2021 में कर्नाटक में ईसाइयों पर हुए हमले दिखाते हैं कि मोदी शासन की कहानी भारत के विभिन्न हिस्सों में अल्पसंख्यकों पर हमलों की पुनरावृत्ति से जुड़ी है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने हिंदुओं पर हुए हमलों की सार्वजनिक रूप से निंदा की। हमारे प्रधानमंत्री अपने देश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर पूरी तरह से चुप रहे हैं।
मई, 2019 में अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद से मुस्लिमों को कलंकित करना और उनका अपमान करना केंद्र सरकार की नीति का हिस्सा बन गया है। यह कई चीजों में दिखता है, जिनमें भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू और कश्मीर का दर्जा खत्म करना, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का प्रस्ताव और नागरिकता संशोधन अधिनियम शामिल हैं। सीएए और एनआरसी को आक्रामक रूप से बढ़ावा देते हुए, भारत के गृह मंत्री ने जोर देकर कहा कि बांग्लादेश 'दीमकों' का देश है, जिसकी उस देश के बुद्धिजीवियों ने निंदा की। अक्तूबर, 2019 में ढाका यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर मिस्बाह कमाल ने कहा था कि शाह द्वारा भारत में मुस्लिमों को निरंतर निशाना बनाने का गंभीर परिणाम बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर होगा।
विभिन्न आस्थाओं के कट्टरपंथी एक दूसरे को खुराक देते रहते हैं, लेकिन भारत के गृह मंत्री का इस खेल में शामिल होना खतरनाक है। अप्रैल, 2021 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में शाह ने कहा था कि बांग्लादेश अपने लोगों को भोजन उपलब्ध नहीं करा सकता, जिसका उस देश के विदेश मंत्री ने करारा जवाब दिया था। पश्चिम बंगाल के चुनाव को हिंदू-मुस्लिम टकराव में बदलने की कोशिश नाकाम हो गई। वहां तृणमूल कांग्रेस सत्ता में वापस आ गई। इसके बावजूद भाजपा नेता नहीं रुके।
हाल ही में उत्तर प्रदेश में, जहां अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने हैं, गृह मंत्री ने हिंदुओं में असुरक्षा की भावना जगाने की कोशिश की। इसी तरह से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव अभियान में धार्मिक ध्रुवीकरण को आधार बनाया है। हाल ही में, खुद प्रधानमंत्री की सदारत में वाराणसी में हिंदू विजयवाद का दंभी प्रदर्शन किया गया। 1940 के दशक में लौटते हैं, जब जिन्ना और मुस्लिम लीग ने दावा किया कि भारतीय मुसलमानों को सुरक्षित और सम्मान के साथ रहने के लिए अपने अलग देश की जरूरत है।
अब, 2020 के दशक में, मोदी और शाह की भाजपा का मानना है कि भारत में हिंदुओं को लगातार मुस्लिमों पर अपने आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक प्रभुत्व का दावा करना चाहिए। दिसंबर, 1971 में बांग्लादेश के निर्माण से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का अंत होने वाला था। लेकिन इतिहास की क्रूर विडंबनाओं में से एक में, पचास साल बाद उस सिद्धांत का एक संस्करण उसी देश भारत में फल-फूल रहा है, जिसने शुरुआत में ही उस सिद्धांत को खारिज कर दिया था।
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