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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव
सुमित पांडे।
9 अगस्त, 1964 को दिल्ली में देश के प्रभावशाली मुस्लिम नेताओं (Muslim leaders) की एक बैठक आयोजित की गई थी. इस आपात बैठक की वजह देश में लगातार हुए साम्प्रदायिक दंगे (Communal Riots) थे, जिसकी वजह से अंग्रेजों के शासनकाल के बाद यथास्थिति बनाए रखने के कांग्रेस (Congress) के प्रयासों में रुकावट आ गई थी. गौर करें तो 1964 के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं इससे एक दशक पहले की तुलना में काफी बढ़ गई थीं. 1963 में देशभर में कुल 61 साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, जिनकी संख्या 1964 में बढ़कर 1070 पहुंच गई.
बैठक में मौजूद लोगों में मुस्लिम लीग के वे नेता भी शामिल थे, जो आजादी के वक्त पाकिस्तान नहीं गए थे. इसके अलावा जमात-ए-इस्लामी के कुछ कैडर भी थे, जो वैचारिक रूप से पाकिस्तान के निर्माण के विरोध में थे. वहीं, जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद के साथ मुस्लिम बुद्धिजीवियों का छोटा, लेकिन प्रभावशाली वर्ग भी शामिल था. इस तरह अलग-अलग राजनीतिक मत रखने वाले लोग ऑल इंडिया मजिस-ए-मुशावरत बनाने के लिए एक मंच पर पहुंच गए.
1967 के चुनावों में राजनीतिक दलों ने मजलिस को साधना शुरू कर दिया था
मजलिस ने चुनावी मैदान में ताल नहीं ठोंकने का फैसला किया, लेकिन उन प्रत्याशियों का समर्थन करने का वादा किया, जो उनके घोषणा पत्र से सहमत थे. आलम यह था कि 1967 के चुनावों में मुस्लिमों के वोट हासिल करने के लिए कई राजनीतिक दलों ने मजलिस को साधना शुरू कर दिया. मजलिस के एक धड़े ने सिर्फ कांग्रेस उम्मीदवार सुभद्रा जोशी को समर्थन दिया, जो बलरामपुर में जनसंघ के प्रत्याशी अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ अपनी सीट बचाने की कोशिश कर रही थीं.
लखनऊ से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे पीलू मसानी को भी मजलिस का समर्थन हासिल हुआ. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) के प्रमुख राम मनोहर लोहिया ने मजलिस का समर्थन हासिल करने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ का विरोध बंद कर दिया. उस समय मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता के समर्थकों के प्रभुत्व वाली कांग्रेस पार्टी की यूपी यूनिट ने मजलिस का समर्थन हासिल करने के लिए तैयार नहीं थी. दरअसल, मजलिस के घोषणा पत्र में कांग्रेस की आलोचना की गई थी और पार्टी पर मुस्लिम वोटों को हल्के में लेने का आरोप लगाया गया था.
मजलिस ने चार जिलों बस्ती, गाजीपुर, सियापुर और रामपुर में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवारों को समर्थन देने का फैसला किया. साथ ही, बाराबंकी, फर्रुखाबाद, मेरठ और कानपुर में संयुक्त सोशललिस्ट पार्टी का समर्थन किया. राज्य में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों पर मजलिस का कोई खास असर नहीं पड़ा. 1967 के चुनावों में कांग्रेस 18 मुस्लिम विधायकों की संख्या बरकरार रखने में कामयाब रही, जबकि गैर-कांग्रेसी मुस्लिम विधायकों की संख्या 9 से घटकर 8 रह गई.
मजलिस के चलते मुस्लिम वोटों पर कांग्रेस की पकड़ लगभग कमजोर होने लगी थी
जिन राज्यों में मजलिस सक्रिय थी, वहां मुस्लिम प्रतिनिधित्व में समग्र कमी 7.44 प्रतिशत थी. हालांकि, मजलिस की मदद से कुछ राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों के कई सांसद लोकसभा में पहुंच गए. लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले यूपी के मुस्लिम सांसदों की संख्या 5 से घटकर सिर्फ 1 रह गई, जबकि विपक्ष के सांसदों की संख्या 0 से बढ़कर 4 हो गई. दिलचस्प बात यह है कि मजलिस के हस्तक्षेप के बावजूद 1962 में कांग्रेस की सुभद्रा जोशी से लोकसभा चुनाव हारने वाले अटल बिहारी वाजपेयी 1967 में 30 हजार से ज्यादा वोटों से जीत हासिल करके संसद लौटे.
1967 के दौरान हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को पहली बार करारी हार का सामना करना पड़ा, जिसके चलते उत्तर प्रदेश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. लेकिन जिन सीटों पर जनसंघ ने चुनाव नहीं लड़ा था, वहां नतीजे एकदम उलट थे. वेतन वृद्धि की मांग को लेकर राज्य सरकार और सरकारी कर्मचारियों के बीच काफी समय से चल रहे टकराव के मद्देनजर अन्य श्रमिक वर्गों से समाजवादियों को समर्थन हासिल हुआ था.
समाजवादियों और अन्य पार्टियों ने उन सीटों पर वास्तव में अच्छा प्रदर्शन किया था, जहां मजलिस एक्टिव थी और उम्मीदवारों का समर्थन कर रही थी. यह पहला चुनाव था, जिसमें मुस्लिम वोटों पर कांग्रेस की पकड़ लगभग कमजोर होने लगी थी और अल्पसंख्यकों ने विपक्षी दलों में मौजूद अन्य राजनीतिक संगठनों को समर्थन दिया था. 25 साल बाद मंडल-मंदिर मुद्दे के बाद समाजवादियों ने यूपी और बिहार में कांग्रेस को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया और देश की सबसे पुरानी पार्टी को राजनीति से बाहर कर दिया.
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