सम्पादकीय

2022: भारत के लिए बाहरी मोर्चे पर चुनौतियों का अंबार, सतर्क रहने की जरूरत

Gulabi
2 Jan 2022 6:48 AM GMT
2022: भारत के लिए बाहरी मोर्चे पर चुनौतियों का अंबार, सतर्क रहने की जरूरत
x
भारत के लिए बाहरी मोर्चे पर चुनौतियों का अंबार
विवेक काटजू: यह स्पष्ट है कि इस वर्ष भी भारत के लिए तमाम बाहरी चुनौतियां कायम रहने वाली हैं। कुछ पर अतीत की छाया भी दिखेगी। जैसे कि दशकों से चला आ रहा पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। दूसरी चुनौती नए शीत युद्ध से उपजेगी। कोविड महामारी का अनिश्चित चक्र भी अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर परेशानी का सबब बनेगा। ऐसे में इस जटिल बाहरी परिस्थिति से सफलतापूर्वक निपटने के लिए भारत को सतर्क रहने, कूटनीतिक निपुणता दिखाने और सामाजिक स्तर पर शांति स्थापित करने की आवश्यकता होगी। नि:संदेह भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती चीन की है। हालांकि ऐतिहासिक कारणों से जनता के मन में पाकिस्तान का खतरा ज्यादा बड़ा रहा है। वहीं भारत के साथ सीमा पर चीन का रुख कड़ा बना रहा, लेकिन पिछली सदी के आखिरी दशक में वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर शांति बनाए रखने को लेकर उसने सहमति जताई। 2013 में शी चिनफिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से चीन की समग्र नीतियां बदल गई हैं और उनमें भारत नीति भी शामिल है।
पिछले कुछ महीनों के दौरान एलएसी पर चीनी आक्रामकता यही दर्शाती है कि वह अब पुराने समझौते पर टिके रहने का इच्छुक नहीं। एलएसी पर कुछ क्षेत्रों में जरूर टकराव घटा है, किंतु चीन 2020 से पहले वाली स्थिति की ओर नहीं लौटा है। भारत इस पर भी नजर बनाए हुए है कि चीन कैसे पाकिस्तान को लगातार राजनीतिक, सैन्य, आर्थिक एवं कूटनीतिक समर्थन प्रदान कर रहा है। चीन खुद को अफगानिस्तान में स्थापित करने की कोशिशों में जुटा है ताकि मौका मिलते ही उसके संसाधनों का दोहन कर सके। नेपाल और मालदीव जैसे देशों में भी बढ़ती चीनी पैठ भारतीय हितों पर आघात कर रही है। ईरान के साथ भी चीन प्रगाढ़ संबंध बना रहा है और मध्य एशियाई देशों में उसका आर्थिक वर्चस्व बना हुआ है। स्पष्ट है कि चीनी चुनौती केवल उत्तरी सीमा तक ही सीमित नहीं रहने वाली। चीन अब विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका को भी ललकारने में लगा हुआ है। बड़ी आर्थिक सफलता हासिल करने के साथ ही चीन अपनी सामरिक क्षमताओं को आधुनिक बनाने के साथ उनके विस्तार में जुटा है। उच्च प्रौद्योगिकी में भी उसने ऊंची छलांग लगाई है। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और ऐसी ही अन्य कवायदों से अपने प्रभाव को बढ़ाकर उसने विश्व को एक शीत युद्ध में धकेल दिया है। अमेरिका और उसके सहयोगी विश्व के विभिन्न हिस्सों में चीनी प्रभाव को बढ़ने से रोकने के प्रयासों में जुटे हैं। इससे एक नया शीत युद्ध छिड़ रहा है, लेकिन अतीत से उसका संदर्भ अलग है। ऐसे में भारत को व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ राह तलाशने की आवश्यकता है।
हंिदू-प्रशांत क्षेत्र में चीनी चुनौती का तोड़ निकालने के लिए भारत ने अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान के साथ क्वाड बनाया है। साथ ही साथ उसने चीन को संदेश दिया है कि वैश्विक मुद्दों पर साझा हितों को लेकर वह सहयोग के लिए भी तैयार है। भारत भले ही यही दृष्टिकोण कायम रखे, लेकिन चीन की चुनौती का जवाब देने के लिए उसे भावुकता से मुक्त कूटनीति के साथ ही अपनी शक्ति भी बढ़ानी होगी। इसी कूटनीति के तहत भारत ने तालिबान के पाकिस्तान से जुड़ाव के बाद भी उससे संपर्क साधने में तत्परता दिखाई। कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का एलान किया है। अभी उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। दावा किया जा रहा है कि उसका स्वरूप समग्रता लिए है, जिसमें पानी और खाद्य सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा को भी शामिल किया गया है। किसी देश की सुरक्षा में इन ¨बदुओं को शामिल किया जाना चाहिए। हालांकि पाकिस्तान जब तक भारत को अपना स्थायी शत्रु मानता रहेगा तब तक वह आर्थिक रूप से स्थायित्व नहीं प्राप्त कर सकता। न ही भारत के साथ उसके संबंध सामान्य हो सकते हैं। ऐसे में इस साल भारत को आतंकवाद सहित कई मोर्चो पर पाकिस्तानी शत्रुता से निपटना होगा।
कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रोन ने इन दिनों दुनिया में अपनी दहशत फैला रखी है। भारत में भी उसके मामले बढ़ने पर हैं। यह महामारी न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही है, बल्कि कूटनीति पर भी उसका साया दिख रहा है। अपने हितों के साथ कोई समझौता किए बिना भारत को टीकों के निर्यात पर बनने वाले दबाव से निपटना होगा। इसके लिए कूटनीतिक कौशल की आवश्यकता होगी। इस पूरे साल भारत को चीनी आक्रामकता और पाकिस्तानी शत्रुता से पार पाने के अतिरिक्त कई अन्य मोर्चो पर भी संतुलन साधना होगा। मिसाल के तौर पश्चिम एशिया में एक दूसरे के बैरी ईरान और संयुक्त अरब अमीरात के साथ सही समीकरण बैठाने होंगे। वहीं रूस के साथ संबंध बिगाड़े बिना ही हमें अमेरिका के साथ गलबहियां और बढ़ानी होंगी।
यह भी स्मरण रहे कि अगर किसी देश का समाज विभाजित है और उसमें शांति नहीं तो उसे विदेश नीति में कभी सफलता नहीं प्राप्त हो सकती। भारत का इतिहास इसका प्रमाण है।
सामाजिक फूट के कारण राजनीतिक एकता नहीं बन पाई और उस वजह से विदेशी आक्रांताओं का सामना नहीं किया जा सका। इतिहास का यह सबक आज भी प्रासंगिक है, जब भारत सुरक्षा संबंधी कई चुनौतियों से जूझ रहा है। ऐसे में सरकार की अगुआई में पूरा राजनीतिक वर्ग और धार्मिक नेताओं एवं बुद्धिजीवियों को एकता का संदेश देना होगा। उन्हें स्वयं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। उसमें कोई कटुता, तल्खी और आक्रामकता नहीं होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि आज ऐसा नहीं है। सामाजिक संतुलन और सौहार्द बढ़ाने के बजाय वे जाति और मजहब के आधार पर विभाजन में जुटे हैं। अतीत में ऐसे गैरजिम्मेदाराना व्यवहार ने केवल दुश्मन देश का मददगार बनने के साथ ही देश को गुलामी में धकेला। अब देश के पास दुश्मनों से लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन हमारी राजनीतिक बिरादरी और जनता को महसूस करना होगा कि दुनिया में इस समय कड़ी प्रतिस्पर्धा का दौर है। जो देश पिछड़ जाते हैं उनका अन्य अनेक तरीकों से शोषण होता है। सामाजिक एकता, सैन्य एवं आर्थिक रूप से शक्तिशाली और विज्ञान-प्रौद्योगिकी में अग्रणी देश ही आगे रह सकते हैं। हमें सदैव सतर्क रहकर 'लम्हों ने खता की है और सदियों ने सजा पाई' वाली स्थिति से बचना होगा।
(लेखक विदेश मंत्रलय में सचिव रहे हैं)
Next Story