सम्पादकीय

संसद पर हमले के 20 साल : आंखों देखी, जब सुरक्षा बलों ने अपनी जान देकर बचा ली थी देश की आन

Gulabi
13 Dec 2021 5:39 AM GMT
संसद पर हमले के 20 साल : आंखों देखी, जब सुरक्षा बलों ने अपनी जान देकर बचा ली थी देश की आन
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जब सुरक्षा बलों ने अपनी जान देकर बचा ली थी देश की आन
पूरे बीस साल हो गए आज,लेकिन बीस साल बाद भी वो तस्वीर, वो मंजर आज भी जस का तस आंखों में है. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक जीवन की एक और अहम 13 तारीख. दिसम्बर 13, 2001 की सुबह उपराष्ट्रपति के ड्राइवर शेखर संसद में राज्यसभा के दरवाज़े नंबर 11 पर उपराष्ट्रपति और सभापति कृष्णकांत के आने का इंतज़ार कर रहे थे, क्योंकि राज्यसभा पैंतालिस मिनट पहले हंगामे की वज़ह से स्थगित हो गई थी.
शेखर ने अचानक चिल्लाने की आवाज़ सुनी लेकिन तब तक एक सफेद एम्बेसेडर कार ने उनकी कार को टक्कर मार दी. वो उस ड्राइवर को कुछ कहता तब तक गाड़ी से पांच आतंकवादी एके-47 के साथ निकले और अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. शेखर कार के पीछे छिप गया तब तक उपराष्ट्रपति के सुरक्षा गार्डों ने भी गोलीबारी शुरू कर दी.
संसद में जॉर्ज फर्नाडिस का इस्तीफा मांगा जा रहा था
'कफन चोर, गद्दी छोड़… सेना ख़ून बहाती है, सरकार दलाली खाती है'…उस दिन विपक्षी सासंदों के नारों की गूंज संसद के दोनों सदनों में सुनाई दे रही थी. विपक्षी सदस्य रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का इस्तीफ़ा मांग रहे थे. उनका आरोप था कि कारगिल जंग के वक्त सरकार ने एल्यूमिनियम के जो ताबूत खरीदे हैं, उसमें भ्रष्टाचार हुआ है, दलाली खाई गई है. इसके लिए रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का इस्तीफा चाहते थे. संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. चल क्या रहा था, बस हंगामे की भेंट चढ़ रहा था.
गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी संसद भवन के अपने ऑफिस में थे, करीब 11 बजकर 40 मिनट पर, जब आडवाणी ने गोलियां चलने की आवाज़ें सुनीं, वो देखने के लिए तुरंत अपने दफ्तर से बाहर निकले लेकिन संसद के गोल घुमावदार बरामदे में ही सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक दिया. कहा, साहब आगे मत जाइए, आतंकवादियों ने हमला कर दिया है.
आडवाणी वापस अंदर पहुंचे, उन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी को घर पर फोन किया. वाजपेयी संसद नहीं चलने के अंदेशे की वजह से आए ही नहीं थे. घर पर ही सरकारी कामकाज देख रहे थे. आडवाणी ने उन्हें हालात की जानकारी दी. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी संसद स्थगित होने के कुछ देर बाद ही चली गई थीं. बाहर सुरक्षाकर्मियों और आतंकवादियों के बीच गोलीबारी चल रही थी. उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी और राज्यसभा में उपसभापति नजमा हेपतुल्ला समेत करीब दो सौ सांसद अब भी अंदर थे. इसके साथ ही पत्रकार, खासतौर से टीवी पत्रकार और कैमरामैन भी वहां मौज़ूद थे जिससे पूरा वाकया सारी दुनिया को देखने में मदद मिली.
केन्द्रीय मंत्री प्रमोद महाजन सांसदों को सुरक्षित रखने के लिए अंदर धक्का देने की कोशिश कर रहे थे. संसद भवन के वॉच एंड वार्ड के सुरक्षाकर्मी और सीआरपीएफ के जवान हमलावरों से मुकाबले में लगे थे. संसद के सुरक्षाकर्मियों ने तेज़ी से संसद भवन के दरवाजों को बंद किया जिसकी वजह से कोई आतंकवादी संसद भवन के अंदर नहीं घुस पाया और एक बहुत बड़ा हादसा होने से टल गया.
कुछ दिन पहले ही मैं संसद में सुरक्षा प्रभारी से बातचीत कर जानना चाह रहा था कि संसद भवन की सुरक्षा को वह कैसे देख रहे हैं, क्योंकि कुछ दिन पहले ही जम्मू कश्मीर विधानसभा पर आतंकवादी हमला हुआ था. उससे पहले 11 सितम्बर को अमेरिका में ट्विन टावर पर हमला हो चुका था. संसद भवन के हर कोने पर कैमरों से नज़र रहती है, सुरक्षा जवान तैनात रहते हैं. उन्होंने जवाब दिया कि कोई भी सुरक्षा बंदोबस्त किसी फ़िदायीन को नहीं रोक सकता, लेकिन सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता होने का सबूत यह है कि संसद भवन में कोई आतंकवादी हमले के मकसद से अंदर आ तो सकता है, लेकिन ज़िंदा वापस नहीं जा सकता. उनकी बात सच होते भी उस दिन देखा.
जसवंत सिंह की डायरी 'इंडिया एट रिस्क'में वे लिखते हैं, 'कमरा नंबर 27, संसद के गेट नंबर 12 से बामुश्किल 20 फीट दूर, मैं अपने दफ्तर में फाइलें देख रहा था. गोलियां चलने की आवाज़ सुनी तो लगा कि ड्यूटी पर तैनात किसी संतरी को अचानक झपकी लग गई होगी और ट्रिगर दब गया होगा. तभी धमाके की आवाज़ हुई. सहयोगी राघवन दौड़ता हुआ आया, सर, ये क्या है? मैंने कहा– जिसका मुझे काफी वक्त से डर था, वो शायद हो गया. कॉरिडोर में अफरातफरी मची थी. दरवाज़े बंद कर दिए गए, लोग इधर-उधर भाग रहे थे और बाहर से गोलीबारी की आवाज़ें साफ सुनाई दे रही थीं'.
नौ जवान हुए शहीद
वो पांच आतंकवादी थे. उनकी सफेद ऐम्बेसेडर कार पर गृहमंत्रालय का स्टिकर और प्रवेश पास लगा हुआ था, जिस वजह से उस गाड़ी को संसद भवन के मुख्य द्वार पर नहीं रोका गया. सुरक्षाकर्मियों की बहादुरी और सतर्कता की वजह से पांचों आतंकवादी मारे गए, लेकिन इसमें हमारे नौ बहादुर जवान भी शहीद हो गए. इन शहीद होने वाले जवानों में जे पी यादव, मतबर सिंह, कमलेश कुमारी, नानक चंद, रामपाल, ओमप्रकाश, घनश्याम, बिजेन्दर सिंह,देशराज और एएनआई के कैमरामैन विक्रम सिंह बिष्ट भी शामिल थे.
जांच से साफ हो गया कि संसद पर हमला पाकिस्तान में ठिकाना बनाने वाले आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद ने किया था. इन दोनों आतंकवादी संगठनों को आईएसआई से मदद और संरक्षण मिलता रहा है. हमला करने वाले पांचों आतंकवादी पाकिस्तानी नागरिक थे, जो वहीं मारे गए, उनको मदद करने और योजना बनाने वालों को गिरफ्तार कर लिया गया. सरकारी एजेंसियों की जांच के मुताबिक पांचों आतंकवादी कार में संसद परिसर में घुसे और गेट नं 12 की तरफ मुड़े, तो उनकी गाड़ी वहां गेट नं 11 के पास उपराष्ट्रपति के कारवां की गाड़ी से टकरा गई. वहां मौजूद वॉर्ड एंड वॉच के जगदीश प्रसाद यादव को शक हुआ वे उस गाड़ी के पीछे दौड़े तो कार ने रफ्तार तेज़ की और वो उपराष्ट्रपति की कार से टकरा गई. वहां तैनात सुरक्षाकर्मी तुरंत हरकत में आ गए. तब पांचों आतंकवादी कार से कूदे और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे. सीआरपीएफ और आईटीबीपी के जवानों ने भी जवाबी कार्रवाई की.
आतंकवादी पहले गेट नं 12 की तरफ दौड़े
संसद में खतरे का अलार्म बजने लगा. आतंकवादी पहले गेट नं 12 की तरफ दौड़े जहां से राज्यसभा सांसद जाते हैं, फिर उससे आगे मुख्य दरवाजे गेट नंबर एक की तरफ. गेट नंबर एक पर एक आतंकवादी को सुरक्षाकर्मियों की गोली लगी, उसके साथ ही वो फट पड़ा. उसने शरीर पर बम लपेटा हुआ था, आत्मघाती आतंकवादी, स्यूसाइड बॉम्बर. बाकी चार आतंकी गेट नंबर 9 की तरफ भागे, वहां उनमें से तीन मारे गए और एक गेट नंबर पांच के पास मारा गया.
भारत में इस सारे काम को अंजाम देने वाला था अफज़ल गुरु. अफज़ल को यह काम जैश-ए-मौहम्मद के गाज़ी बाबा ने सौंपा था. इससे पहले अफज़ल ने पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में आएसआई के कैम्प में ट्रैनिंग ली थी. हमले से दो दिन पहले 11 दिसम्बर को इन लोगों ने करोल बाग से एक लाख दस हज़ार रुपए में कार खरीदी, फिर कहीं से लालबत्ती का इंतज़ाम किया. इंटरनेट की मदद से संसद में प्रवेश के लिए स्टिकर निकाल लिया. 12 दिसम्बर की रात वह नक्शे पर पूरी योजना को अंतिम रूप देता रहा. तय किया गया कि गेट नं 2 से संसद के अंदर जाएंगें. अफज़ल को इस बात की ज़िम्मेदारी दी गई कि वह टीवी पर देखकर संसद के हाल बताए कि क्या कार्रवाई चल रही है, लेकिन अफज़ल जहां रुका हुआ था वहां बिजली नहीं आ रही थी, इसलिए वह आतंकवादिय़ों को नहीं बता पाया कि संसद की कार्रवाई स्थगित हो गई है और बहुत से सांसद चले गए हैं. दरअसल उनके पास संसद भवन के अंदर का पूरा नक्शा भी नहीं था कि कौन कहां बैठता है और क्या डिज़ायन है?
संसद पर हमले के बाद एक बार फिर साबित हो गया कि पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठन आईएसआई की मदद से ऐसी आंतकवादी घटनाओं को अंज़ाम देते हैं. इससे पहले आईसी 814 का अपहरण, लालकिले में आतंकवादियों के घुसने की कोशिश, फिर जम्मू कश्मीर विधानसभा परिसर में हमला, सब कुछ आईएसआई के इशारे पर किया गया. खासतौर से लश्कर ए तैयबा और जैश ए मौहम्मद दहशतगर्दी बढ़ाने में लगे हुए थे.
दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त को विदेश मंत्रालय बुला कर कड़े शब्दों में बताया गया कि किस तरह पाकिस्तान इन आतंकवादी संगठनों की मदद कर रहा है और भारत यह कतई बर्दाश्त नहीं करेगा. पाकिस्तान की तरफ से भारत के खिलाफ पिछले दो दशक से चलाई जा रही आतंकवादी गतिविधियों में अब तक का यह सबसे बड़ा हमला था. गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में अपने बयान में कहा,आतंकवादियों ने हिन्दुस्तान के लोकतंत्र के मंदिर पर हमला किया था, वे पूरे राजनीतिक नेतृत्व को खत्म करने का मंसूबा लेकर घुसे थे, लेकिन नाकाम रहे क्योंकि हमारे सुरक्षाकर्मी और जवानों ने अपनी जान की परवाह किए बिना उसे सुरक्षित रखा यह मुल्क हमेशा उनका कर्ज़दार रहेगा.
पूरा देश गुस्से में था. पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई करने, जंग शुरू करने का माहौल बन रहा था. देश में तनाव बढ़ रहा था. राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ हर तरह का दबाव बनाने की कोशिश की गई. पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने भी इस आतंकी हमले की कड़े शब्दों में निंदा की, यह अलग बात है कि मारे गए पांचों आतंकवादी पाकिस्तानी नागरिक थे और एक के पास से जो मोबाइल फोन बरामद हुआ, उसका रजिस्ट्रेशन नंबर भी कराची का था और हमले से कुछ देर पहले उसने अपने आकाओं से कराची में बात भी की थी.
ऑपरेशन पराक्रम
संसद पर हमले के बाद देश भर में गुस्सा दिख रहा था. प्रधानमंत्री वाजपेयी पर पाकिस्तान को सबक सिखाने का दबाव बन रहा था. 15 दिसम्बर को कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी ने सीमा पर सेना की तैनाती का फैसला किया जो 3 जनवरी 2002 तक चलता रहा. इससे दोनों मुल्कों के बीच तनाव और बढ़ गया. उस वक्त विदेश मंत्री जसवंत सिंह दिल्ली में नहीं थे,जब लौट कर आए तो उन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी से पूछा कि यह क्या किया, जवाब मिला, इससे फायदा होगा. सेना की तैनाती हो गई थी.
जसवंत सिंह ने मुझसे कहा,मैं लड़ाई के पक्ष में नहीं था, जवान कभी लड़ाई नहीं चाहता, वो समझता है. मैं अटल जी से भी सहमत नहीं था, जब उन्होंने कहा कि आर-पार की लड़ाई हो जाए. मैंने पूछा कि आप क्या कह रहे हैं, तो अटल जी ने कहा कि उस वक्त कह दिया. मैंने कहा कि आप पसंद नहीं करेंगें जो मैं कह रहा हूं तो अटल जी तुरंत बोले, तो क्यों कह रहे हो. अटल जी भावनाओं में बहने वाले व्यक्ति थे लेकिन खुद की आलोचना से नाराज़ नहीं होते थे.मगर बोलते-बोलते जसवंत भी भावुक होने लगे, आवाज़ थोड़ी डबडबा सी रही थी. आवाज़ को थोड़ा संयत किया. फिर बोले,अटल जी के तरीके में एक तहज़ीब, एक सलीका था.
जसवंत सिंह ने समझाने की कोशिश की कि न्यूक्लियर ताकत के बाद युद्ध किसी के लिए ठीक नहीं होगा. सेना की तैनाती अक्टूबर 2002 तक रही. इस बीच दो बार दोनों मुल्कों के बीच जंग के हालात भी बने लेकिन जंग नहीं हुई. आज भी भारत के अपने पड़ोसी मुल्क से संबंध बेहतर नहीं है, आतंकवादी घटनाएं रुक नहीं रहीं. देश में राष्ट्रवाद के नाम पर भावनाओं का उबाल जोरों पर है. हाल में हमने अपने चीफ ऑफ डिंफेस स्टॉफ को खोया है. मुल्क की सुरक्षा सबसे बड़ी जिम्मेदारी है लेकिन एक सैनिक ही समझता है कि बेहतर होता है कि युद्ध की आशंकाओं को टालना,मगर कोई इसे कमज़ोरी भी ना समझे.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ऑर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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