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वर्ष 1946 - कैबिनेट मिशन
हमें यह समझना होगा कि कांग्रेस ने हमेशा यह प्रयास किया कि आजादी के आंदोलन की उसकी राजनीति सांप्रदायिक मूल्यों पर आधारित न हो. महात्मा गांधी और राष्ट्रवादी राजनेता यह मानते थे कि जाति और संप्रदाय के आधार पर आजादी की लड़ाई लड़ना और राजनीति की यात्रा करना भारत के लिए आत्मघाती होगा. इसलिए, हिन्दू-मुसलमान के सवाल पर कांग्रेस और महात्मा गांधी ने राजनीति नहीं की और कोशिश की कि इनके बीच किसी तरह का अविश्वास और दुराग्रह पैदा न हो.
इसके उलट ब्रिटिश सरकार और सांप्रदायिक राजनीति के माध्यम से सत्ता हासिल करने की इच्छा रखने वाले समूहों ने हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच दूरी को बढ़ाने की पहल की. यही वजह है कि ऑल इंडिया मुस्लिम लीग को मुसलमानों की रहनुमाई करने वाले दल के रूप में स्वीकार्यता मिलती गई. वर्ष 1935 में भारत शासन अधिनियम लागू हुआ और इसके तहत भारत के राजनीतिक दलों ने प्रांतीय चुनावों में भाग लिया.
फ़रवरी 1937 में चुनावों के परिणाम आने से पता चला कि कांग्रेस को मद्रास, यूपी, मध्य प्रांत, बिहार और ओडिशा में बहुमत मिला. बाम्बे प्रांत में उसे 175 में 68 स्थान, असम में 108 में 35 और उत्तर-पूर्वी सीमा प्रांत में 50 में 19 स्थान मिले. इन सभी प्रांतों में कांग्रेस ने सरकार बनाई. इस चुनाव में भारत की राजनीति में सांप्रदायिकता की गर्मी को महसूस किया जा सकता था. वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनावों में 836 सामान्य (हिन्दू बहुल) सीटों में से कांग्रेस को 715 स्थानों पर विजय मिली, लेकिन कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों की स्थिति बहुत खराब रही.
प्रांतों के 485 मुस्लिम बहुल स्थानों में से कांग्रेस केवल 58 पर चुनाव लड़ पाई और 26 सीटें जीती. यूपी में कांग्रेस ने 66 में केवल 9 पर चुनाव लड़ा और एक भी जीत नहीं पाई. बम्बई में उसने 30 मुस्लिम बहुल सीटों में से 2 पर चुनाव लड़ा और दोनों हार गई. इसका परिणाम यह हुआ कि चुनाव जीतने के बाद भी मंत्रिमंडल का गठन करने के लिए कांग्रेस को मुस्लिम प्रतिनिधि उपलब्ध नहीं हुए. मुस्लिम लीग को भी केवल 108 स्थानों पर ही जीत हासिल हुई थी.
शेष स्थानों पर निर्दलीय उम्मीदवार विजयी हुए थे. इस स्थिति में मोहम्मद अली जिन्ना कोशिश कर रहे थे कि कांग्रेस, मुस्लिम लीग को भी सरकार में शामिल करे, लेकिन वे यह भी चाहते थे कि मुस्लिम लीग के जो प्रतिनिधि मंत्री बनेंगे, वे स्वतंत्र रूप से काम करेंगे और उन्हें किसी भी निर्णय को निषेध करने (वीटो) का अधिकार होगा. सरदार वल्लभ भाई पटेल और मौलाना आज़ाद ने इस मांग को खारिज कर दिया.
इस घटना के बारे में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने लिखा है कि वर्ष 1937 में मुस्लिम लीग को सरकार में शामिल न करने का कांग्रेस का फैसला सही था, क्योंकि इस सहभागिता के माध्यम से उनके मंत्री सरकार को काम नहीं करने देते. आखिरकार वर्ष 1946-47 में जब मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में शामिल हुई, तब यह बात साबित भी हुई, क्योंकि उसने अंतरिम सरकार के सामने सोच-समझ कर परेशानियां खड़ी कीं.
लगभग नौ साल बाद जब भारत की आजादी का सूरज उगने की शुरुआत हुई, तब सत्ता हस्तांतरण की जरूरी राजनीतिक-प्रशासनिक प्रक्रिया पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 24 मार्च 1946 को लार्ड पैथिक लारेंस के नेतृत्व में सर स्टेफर्ड क्रिस्प और ए.वी. अलैक्जेंडर के साथ कैबिनेट मिशन भारत भेजा. इसका एक प्रमुख उद्देश्य भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करके एक साझा और सर्वसम्मत अंतरिम सरकार का गठन करवाना था.
चूंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस चाहती थी कि भारत का विभाजन न हो और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग चाहती थी कि मुस्लिम बहुल पाकिस्तान का निर्माण हो, इसलिए अंतरिम सरकार के गठन पर साझा सहमति नहीं बन पाई. कैबिनेट मिशन ने भी 16 मई 1946 को जो योजना प्रस्तुत की, उसमें पाकिस्तान के निर्माण की संभावना को अव्यावहारिक बता दिया. पाकिस्तान के निर्माण के बजाय कैबिनेट मिशन ने सुझाया कि एक भारतीय संघ का गठन हो, और इसमें ब्रिटिश भारत और भारत की सभी रियासतें शामिल हों.
भारतीय संघ (केंद्र सरकार) के पास विदेशी मामले, संचार, रक्षा और परिवहन जैसे विषय हों और शेष मामलों में प्रांतीय सरकारों को पूर्ण अधिकार और स्वायत्ता हो. साथ ही यह प्रस्ताव भी दिया गया कि भारत की रियासतों और राज्यों/प्रांतों को मिलाकर तीन मंडल बनाए जाए, जिनमें एक हिन्दू बहुल और दो मुलिम बहुत मंडल हों. इन्हें भी अपना संविधान बनाने का अधिकार होगा. मुस्लिम लीग ने 6 जून 1946 को और कांग्रेस ने 25 जून 1946 को कैबिनेट मिशन की योजना को स्वीकार कर लिया.
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 10 जुलाई को बंबई में कहा कि 'हालांकि कांग्रेस संविधान सभा में शामिल होने को तैयार है, लेकिन यह कैबिनेट मिशन योजना में उपयोगी संशोधन करने का अधिकार रखती है'. जिन्ना ने कहा कि यदि मुसलामानों की पृथक पाकिस्तान की मांग पूरी नहीं हुई तो वे 'प्रत्यक्ष कार्यवाही' करेंगे. जुलाई 1946 में संविधान सभा के गठन के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस को भारी जीत मिली तो कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन के कुछ बिंदुओं को अस्वीकार कर दिया, मसलन तीन मंडलों का वर्गीकरण.
यह एक चुनौतीपूर्ण और बहुत कठिन समय था. भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक टकराव शुरू हो गए थे. मुस्लिम लीग ने यह कहना शुरू कर दिया था कि कैबिनेट मिशन ने कांग्रेस के साथ मिलकर मुसलमानों के हितों पर आघात किया है. कांग्रेस के नेताओं को भी लग रहा था कि भारत के हितों के साथ खिलवाड़ हो रहा है. यह भी माना गया कि तत्कालीन वायसराय लार्ड वावेल ने स्थिति को संभालने में कमजोरी दिखाई, लेकिन वास्तव में वह भी दुविधा में रहे होंगे.
जुलाई-अगस्त 1946 का वक्त ऐसा वक्त था, जब यह दुविधा पैदा हो गई कि भारत के मामलों से संबंधित निर्णय कौन लेगा? के. एम. मुंशी के अनुसार लार्ड वावेल ने ब्रिटिश सरकार को लिखा था कि आज की स्थिति में या तो सत्ता भारतीयों के हाथों में सौंप दी जानी चाहिए या फिर वर्तमान में हो रही हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सेना और पुलिस को अधिकार दे देना चाहिए!
लार्ड वावेल कांग्रेस और मुस्लिम लीग के गठबंधन को सत्ता/सरकार की जिम्मेदारी सौंपना चाहते थे, लेकिन ऐसा न हो पाने की स्थिति में वे कांग्रेस को सरकार चलाने की जिम्मेदारी सौंपना चाहते थे. परंतु उन्हें यह भी अहसास था कि भारत को औपचारिक रूप से पूर्ण प्रभुत्व वाले राज्य की मान्यता मिले बिना कांग्रेस सरकार बनाने की जिम्मेदारी नहीं लेगी.
स्थिति का चित्रण करते हुए के. एम. मुंशी ने लिखा है कि तत्कालीन गवर्नर जनरल के राजनैतिक सुधार आयुक्त वी.पी. मेनन ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी को सरदार पटेल के पास इस प्रस्ताव के साथ भेजा कि यदि कांग्रेस सरकार बनाने की जिम्मेदारी ले तो उसे या तो वायसराय की कार्यकारी परिषद को पूर्ण प्रभुत्व सरकार के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा या कांग्रेस चाहेगी कि भारत के पूर्ण प्रभुत्व राष्ट्र होने की औपचारिक मान्यता घोषित कर दी जाए.
इनमें से दूसरा विकल्प व्यावहारिक और कानूनी नज़रियों से लागू करना संभव नहीं था. सरदार पटेल ने जिम्मेदारी ली कि वे कांग्रेस नेतृत्व को सरकार संभालने की जिम्मेदारी के लिए राजी कर लेंगे. सरदार पटेल के आश्वासन से लार्ड वावेल संतुष्ट थे और इसी आधार पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार को लन्दन सन्देश भेज दिया. इसके बाद 6 अगस्त 1946 को जवाहर लाल नेहरु को अंतरिम सरकार गठित करने का आमंत्रण मिला.
नेहरु ने जिन्ना से मुलाक़ात की और उन्हें कार्यकारी परिषद में शामिल होने का न्यौता दिया; लेकिन जिन्ना कैबिनेट मिशन योजना से जुड़ना ही नहीं चाहते थे. इसके दो दिन बाद यानी 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्रवाई (डायरेक्ट एक्शन) कर दी.
प्रत्यक्ष कार्रवाई को स्पष्ट करते हुए ऑल इंडिया जमैतुल उलमा-ए-इस्लाम के प्रमुख शब्बीर अहमद उस्मानी ने कहा कि 'वायसराय तथा कैबिनेट मिशन कांग्रेस के साथ मिलकर अपने पुराने वायदे से पीछे हट रहे हैं. इसके कारण भारत के 10 करोड़ मुसलमानों को साहस करके सीधी कार्रवाई के लिए आगे आना पड़ रहा है ताकि दुनिया को पता चल जाए कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए मुसलमान किस हद तक बलिदान दे सकते हैं और अपनी बात से मुकरने वाले उनके विरोधियों को वे अपनी गतिविधियों के माध्यम से सबक सिखाना चाहते हैं'.
मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि वे या तो विभाजित भारत चाहते हैं या विनष्ट (तबाह) भारत! बंगाल के मुख्यमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने गवर्नर से आग्रह किया कि 16 अगस्त 1946 को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया जाए. सार्वजनिक अवकाश घोषित किये जाने का बंगाल कांग्रेस ने विरोध किया. राघिब अहसान द्वारा संपादित अखबार डी स्टार ऑफ इंडिया ने मुस्लिम लीग का कार्यक्रम प्रकाशित किया कि मुस्लिम लीग के सदस्य जुमे की नमाज़ के पहले मुस्लिम लीग का मकसद बताने वाले थे और नमाज़ के बाद स्वतंत्र मुस्लिम भारत की स्वतंत्रता के लिए विशेष नमाज़ का आह्वान किया गया.
बंगाल कांग्रेस के नेता किरन शंकर राय ने आह्वान किया कि हिन्दू व्यवसायी या अन्य पेशेवर अपना काम बंद न रखें. इन परिस्थितियों में कोलकाता में सांप्रदायिक दंगे भड़क गये. वहां हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा हुई; यह आग बढ़ते-बढ़ते हावड़ा, हुगली, 24 परगना तक पहुंच गई. इसकी प्रतिक्रिया में बिहार और संयुक्त प्रांत में हिन्दुओं ने मुसलमानों के प्रति हिंसक व्यवहार किया. लार्ड पैट्रिक लारेंस के मुताबिक़ कोलकाता में 5000 लोगों की मृत्यु हुई और 15 हज़ार लोग गंभीर रूप से घायल हुए.
इसके बाद 15 अक्टूबर 1946 को मुस्लिम लीग ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का निर्णय लिया. 2 सितम्बर 1946 को कांग्रेस ने अंतरिम सरकार बना ली. इसमें जवाहरलाल नेहरु, वल्लभ भाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, शरत चन्द्र बोस, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, और जगजीवन राम कांग्रेस के प्रतिनिधि थे. सरदार बलदेव सिंह (सिख), सी. एच. भाभा (पारसी) और जान मथाई (भारतीय ईसाई) और आसफ अली, सर शफात अहमद खान और सैय्यद अली ज़हीर (मुस्लिम समुदाय) को शामिल किया गया.
मंत्रिमंडल में 5 मुस्लिम प्रतिनिधि (मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि के रूप में) शामिल होने थे, अतः दो पद खाली रहे. अंतरिम सरकार ने काम करना शुरू कर दिया लेकिन ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग को सरकार में शामिल होने के लिए प्रेरित करती रही और मुस्लिम लीग को भी लगा कि सरकार से बाहर रहने से उनका संघर्ष कमज़ोर पड़ जाएगा. अतः लार्ड वावेल से चर्चाओं के बाद 25 अक्टूबर 1946 को मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में शामिल हो गई. मुस्लिम लीग के 5 प्रतिनिधियों को सरकार में शामिल करने के लिए टीम सदस्यों – शरत चन्द्र बोस, शफात अहमद खान और सैय्यद अली ज़हीर को अपने स्थान छोड़ने पड़े.
जिन्ना का मकसद स्पष्ट था. उन्होंने कहा कि वे पाकिस्तान के लिए संघर्ष पैर जमाये रखने के लिए सरकार में शामिल हुए. मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को महत्वपूर्ण विभाग दिए गए. इब्राहीम इस्माइल चुन्द्रीगर को वाणिज्य, लियाकत अली खान को वित्त, गजनफर अली खान को स्वास्थ्य, जोगेंद्र नाथ मंडल को क़ानून और अब्दुर रब निश्तर को डाक और वायु सेवा विभाग सौंपे गये. वक्त की जरूरत के हिसाब से वित्त विभाग को अपरिमित शक्तियां प्रदान की गई थीं.
यहां तक कि शासन व्यवस्था में हर पद पर नियुक्ति के लिए वित्त मंत्री का अनुमोदन जरूरी था. अंतरिम सरकार के गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल द्वारा प्रस्तुत किये गए लगभग हर प्रस्ताव को वित्त मंत्री द्वारा खारिज किया गया. इतना ही नहीं वित्त विभाग ने ऐसी कर व्यवस्था बनाने की कोशिश की, जो भारतीय उद्योगों और व्यापारियों के लिए हितकारी नहीं थी. यह स्पष्ट था कि अंतरिम सरकार में कांग्रेस के मंत्री अपनी भूमिका नहीं निभा पा रहे थे.
तब जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि हमारा संयम तेज़ी से चरम सीमा पर पहुंच रहा है, यदि यह स्थिति जारी रही तो बड़े स्तर पर संघर्ष अवश्यम्भावी है! एक बार फिर ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने भारत के वायसराय, जवाहरलाल नेहरु, बलदेव सिंह और जिन्ना को इंग्लैण्ड आमंत्रित किया ताकि संविधान सभा को परिणाम दायक बनाया जा सके. लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला. इसके बाद जिन्ना ने एक नई मांग– जनसंख्या की अदला-बदली, सामने रख दी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन, निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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