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19 नवंबर इंदिरा गांधी जयंती विशेष
पंडित नेहरू ने जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव देखे थे, वो खुद भी जानते थे कि उनको लेकर गांधीजी ने जिद ना की होती, तो सरदार पटेल ही देश के प्रधानमंत्री होते। ऐसे में उन्हें कहीं ना कहीं ये यकीन हो चला था कि मेहनत की सीढ़ियों से चढ़कर ही प्रधानमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष जैसा पद नहीं पाया जा सकता, बल्कि गांधी जैसा किंग मेकर बनकर भी किसी को इन सर्वोच्च पदों के लिए तैयार किया जा सकता है।
जाहिर है तभी सरदार पटेल की मौत के बाद वो पीएम रहते हुए ही कांग्रेस अध्यक्ष पद पर काबिज हो गए और 3 साल बाद अपने विश्वस्त यूएन ढेबर को गुजरात से बुलाकर पांच साल के लिए बैठा दिया और फिर बेटी को उस पद पर ले आए।
दरअसल, उनको ये कहीं ना कहीं लग गया था कि इंदिरा को तैयार करके अपने राजनीतिक वारिस के तौर पर तैयार किया जा सकता है। उस दौर में घटनाओं को बारीकी से देख रहे हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक दुर्गादास ने अपनी किताब, 'इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर' में विस्तार से इस घटना का जिक्र किया है कि कैसे पंडित नेहरू ने योजना बनाकर पहले कांग्रेस वर्किंग कमेटी में इंदिरा गांधी को शामिल करवाया और एक साल के अंदर ही सर्वोच्च पद यानी अध्यक्ष के पद पर आसीन करवा दिया।
शुरुआत 1957 जून में हुई, जब नेहरू जी अपने साथ कॉमनवेल्थ प्राइम मिनिस्टर्स कॉन्फ्रेंस में अपने साथ लंदन में कैबिनेट मंत्री वीके कृष्णा मेनन को ले गए तो ये चर्चा चली कि वो मेनन को अपना वारिस बनाना चाहते हैं,
लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स की अपनी वीकली डायरी में दुर्गादास ने लिखा-
नेहरू अपने वारिस के तौर पर किसी और को नहीं बल्कि अपनी बेटी इंदिरा गांधी को तैयार कर रहे हैं।
पंडित नेहरू के सबसे करीबी दो व्यक्तियों ने भी उन्हें इसकी पुष्टि की थी, और वो दोनों थे मौलाना आजाद और पं. गोविंद बल्लभ पंत, लेकिन अपने कॉलम में तब दुर्गादास ने इसका जिक्र नहीं किया।
इधर, जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष यूएन ढेबर ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस वर्किंग कमेटी का सदस्य चुना, तो दुर्गादास ने लिख ही डाला कि कैसे नेहरू उन्हें अपने उत्तराधिकारी के तौर पर भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं? नेहरू जी जाहिर तौर पर नाराज हुए, दुर्गादास लिखते हैं-
''नेहरूजी ने उनसे कहा कि जब पुरुषोत्तम दास टंडन ने सरदार पटेल की बेटी मणिबेन को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में रखा था, तो किसी ने ऐतराज नहीं किया?''
दुर्गादास ने उनसे कहा कि मणिबेन तो 1920 से कांग्रेस की सक्रिय सदस्य हैं, अहमदाबाद अधिवेशन में महिलाओं के दल की अगुवाई भी कर चुकी हैं, जबकि इंदिरा तो अभी आई ही हैं। नेहरू जी ने जवाब में कहा कि इंदिरा तो लोकसभा की सीट को भी मना कर चुकी हैं। दुर्गादास पीएम से बहस करने की स्थिति में नहीं थे, कहा कि लेख से इंदिरा को लोकप्रियता मिलेगी, लेकिन नेहरू जी ने कह डाला कि-
'इस लेख से उनकी बेटी को बुरा लग सकता है'।
वंशवाद का इतिहास और कांग्रेस
1959 में कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन तो वंशवाद के इतिहास में एक बड़े अध्याय के तौर पर पढ़ाया जाना चाहिए। लगभग सभी को यकीन था कि यूएन ढेबर के इस्तीफे के बाद एस निजलिंगप्पा को कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाएगा। उनके नाम पर बनी आम सहमति की जानकारी सभी को थी। अधिवेशन में ही कई राज्यों के समूहों ने उनको छोटी-छोटी सभाओं में सम्मानित भी करना शुरू कर दिया। यहां तक कि जब वो बैंगलोर जाने के लिए स्टेशन गए तो उनको भीड़ ने शानदार विदाई दी।
इधर, उसी शाम ढेबर ने वर्किंग कमेटी की एक बैठक बुलाई, जो पहले से तय नहीं थी। बैठक में कामराज के विषय पूछने पर ढेबर ने बताया कि मीटिंग अगले अध्यक्ष को लेकर है, तो कामराज की पहली प्रतिक्रिया थी कि ये तो तय हो चुका है. लेकिन तब शास्त्री जी उठे, लगता था नेहरू जी ने भावुक दवाब शास्त्रीजी पर डाला था-
बोले- 'इंदिरा जी को अध्यक्ष पद के लिए पूछा जा सकता है'। लोग हैरान रह गए, यहां तक कि पंत तो पूछ भी उठे, 'इंदिरा जी की तबियत तो ठीक नहीं है, पहले उन्हें..', वो इससे आगे कुछ कह पाते कि नेहरू जी बोल उठे। 'देयर इज नथिंग रॉन्ग विद इंदूज हेल्थ, शी विल फील बेटर वंस शी हैज वर्क टू कीप हरसेल्फ़ बिजी'। नेहरू की इन लाइनों को कई बार पढ़िए और समझिए, नेता समझ गए बहस वहीं खत्म हो गई।
लेकिन इंदिरा गांधी का तो दावा था कि नेहरू जी को उन्होंने मना कर दिया था। यूएन ढेबर के समझाने पर वो मानी थीं, जाहिर कर रही थीं, जैसे उन्हें जबरदस्ती बना दिया गया है, जबकि वो इतनी खुश थीं कि उन्होंने अपने दोस्त डोरोथी नॉर्मन को लिखा कि-
"I fell acutely embarrassed when all Kinds of VIPs come for advice"। इस पत्र को छापने वाली कैथरीन फ्रैंक की किताब 'द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी' में आगे जिक्र मिलता है कि कैसे इंदिरा को फिर सेंट्रल इलेक्शन कमेटी में चुन लिया गया और 1962 के चुनाव की टिकटों को तीन ही लोगों ने अंतिम रूप दिया, वो थे नेहरू जी, शास्त्री जी और इंदिरा गांधी।
उससे भी ज्यादा दिलचस्प प्रतिक्रिया नेहरूजी की थी। एक पत्रकार के पूछने पर कहा-
"यह सब कुछ कैसे हुआ, मुझे पता नहीं। मुझे तो एकाएक मालूम हुआ कि किसी ने इंदिरा का नाम प्रस्तावित किया है"। यूं पहले नेहरूजी से सार्वजनिक तौर पर जब भी पूछा जाता था, वो अपने उत्तराधिकारी का नाम लेने से हमेशा मना करते थे। ये अलग बात थी कि कोई भी फाइल बिना इंदिरा गांधी की नजरों से गुजरे नेहरू जी तक पहुंचती नहीं थी। शास्त्रीजी को भी लग गया था कि नेहरू जी कितना भी मना करें, लेकिन वो अपनी 'पुत्री' को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
एक दिन कुलदीप नैयर ने उन्हें कहा था कि बतौर उत्तराधिकारी 'नेहरू हैज यू इन माइंड'। लेकिन उसके बाद जो शास्त्रीजी ने जवाब दिया, उसने कुलदीप नैयर की भी बोलती बंद कर दी थी। शास्त्री जी ने कहा, "उनके दिमाग में तो उनकी पुत्री है।" मोरारजी देसाई तो खुलकर कहते थे कि कामराज योजना कामराज की नहीं है बल्कि ये नेहरू जी ने इंदिरा गांधी के रास्ते से सारे रोड़े हटाने के लिए बनाई है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है
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