सम्पादकीय

कश्मीर में हालात सामान्य हो गए हैं?

Admin2
31 July 2022 6:00 AM GMT
कश्मीर में हालात सामान्य हो गए हैं?
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क्या कश्मीर में कुछ बदल रहा है? लाल चौक की तंग गलियों में कांसे का सामान बेचते उस व्यापारी को मुझसे इस सवाल की उम्मीद न थी। वह तो यह भी नहीं जानता था कि मैं कौन हूं? उसकी व्यग्रता देख मैंने अपना परिचय देते हुए खुलकर बोलने का अनुरोध किया। उसका जवाब था- 'देखिए, मैं कोई सियासतदां नहीं, एक सामान्य व्यापारी हूं, पर जैसा कि आप कह रहे हैं, आप 1980 के दशक से यहां आते रहे हैं, तो खुद अपनी आंखों से बदलाव देख लीजिए। हमारे यहां माल भरा पड़ा है। आपके सामने ही दो टूरिस्ट खरीदारी करके निकले हैं। सामने की सड़क पर जाम लगा हुआ है। इस बार टूरिस्ट भी ज्यादा आए हैं। बारिश के मौसम में इतनी बड़ी तादाद में भला कौन पहाड़ों पर घूमने जाता है!'

वह सही कह रहा था। उस तक पहुंचने से पहले हमारी गाड़ी तंग सड़कों पर कई बार फंस चुकी थी। मैं इन गलियों से पहले भी गुजरा हूं। 1980-90 के दशकों में जाम खस्ताहाल सड़कों और पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों की नाकेबंदी से लगता था। अब सड़कें सुधर गई हैं, पर देश के अन्य पर्यटन स्थलों की तरह हर रोज बढ़ते वाहनों की तादाद, पनपती आबादी का दबाव और बड़ी संख्या में सैलानियों की आमद से यातायात बाधित होता है। सुरक्षा बलों के अधिकांश अवरोधक हटा लिए गए हैं। सिर्फ लाल चौक नहीं, मैसूमा की गलियों में भी कुछ उत्सुकता, तो कुछ निश्चिंतता दिखाई दी। जो नहीं जानते, उन्हें बता दूं। अलगाववादियों के अगुआ यासीन मलिक यहीं के रहने वाले हैं। इस इलाके में तीन साल पहले तक आए दिन बंद का आह्वान होता। पत्थरबाजों का गढ़ भी यही था। बहुत से व्यापारियों ने यहां से पुश्तैनी दुकानें बेचकर अपने शो रूम सुरक्षित जगहों पर बना लिए थे। अब हालात कैसे हैं, यह मैं ऊपर बता चुका हूं।
श्रीनगर जैसे खुली हवा में सांस ले रहा है।
बाद में कुछ अधिकारियों और जागरूक नौजवान व्यापारियों से मिलता हूं। घाटी में बिजली की समस्या लाइलाज मानी जाती थी। हालात अभी भी आदर्श नहीं हैं, पर राज्य का कुल विद्युत उत्पादन बढ़ाकर 5,951 मेगावाट पहुंचा दिया गया है। आजादी के बाद से अब तक कभी विद्युत उत्पादन 3,500 मेगावाट से अधिक नहीं रहा। जम्मू-कश्मीर की हुकूमत संभालने के दो वर्ष पूरे करने जा रहे उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा जानते हैं कि घाटी को मुख्यधारा में लाने का अकेला जरिया विकास और रोजगार का सृजन है, इसीलिए इस दौरान युद्ध-स्तर पर काम कर 51 हजार लंबित योजनाओं को परवान चढ़ाया गया। लक्ष्य प्राप्ति के लिए भरोसे की कश्मीर वापसी जरूरी है। इसके लिए जन सामान्य से संवाद के साथ जन शिकायतों के समयबद्ध निराकरण का रास्ता निकाला गया। नतीजतन, पत्थरबाजी और अलगाववादी जुलूस अतीत की बात बन गए हैं। यह प्रक्रिया रुके नहीं और तेज हो, इसके लिए पीएमओ और गृह मंत्री स्वयं नियमित तौर पर 'मॉनिटरिंग' करते हैं।
तो क्या कश्मीर में हालात सामान्य हो गए हैं?
यह कहना जल्दबाजी होगी, पर जुलाई के आखिरी हफ्ते में घाटी के तमाम हिस्सों में घूमते हुए लगा कि जमीनी स्तर पर यकीनन हालात बदले हैं। कश्मीर को मंजिल चाहे जब मिले, पर हुकूमत ने सही रास्ता पकड़ लिया है। आपके मन में सवाल कौंध रहा होगा कि अगर ऐसा है, तो फिर कश्मीरी पंडितों और अमनपसंद कश्मीरियों की 'टारगेट किलिंग' क्यों हो रही है? इसकी सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान से आ रहे आतंकवादी हैं। कोई कुछ भी दावा करे, पर यह सच है कि घाटी में विदेशी आतंकवादियों की आमद अभी तक जारी है। ये दहशतगर्द न केवल वहां के परिवेश को बिगाड़ते हैं, बल्कि कठोर प्रशिक्षण और उनकी कट्टर जेहनीयत उन्हें सुरक्षा बलों पर हमला करने के लिए उकसाती है। वे आम तौर पर घात लगाकर हमला करते हैं और भागने के बजाय सुरक्षा बलों से मोर्चा लेते हैं। उन्हें सिखाया गया है कि आप मुठभेड़ को लंबे से लंबा खींचें, भले ही आपकी जान क्यों न चली जाए। निहितार्थ साफ है। जितनी लंबी मुठभेड़, उतनी बड़ी खबर। खबरें बनें, और बनती रहें, इसके लिए सरहद पार बैठे रणनीतिकार सोच-समझकर 'टारगेट' का चयन करते हैं।
सुरक्षा बलों का सबसे बड़ा सिरदर्द यही विदेशी आतंकवादी हैं। सेना का काम इन्हें सरहदों पर रोकना है। हमारे जवान इसके लिए हरदम जान की बाजी लगाए रहते हैं, पर सीमाओं की दुरूहता और सीमित संसाधन उनकी राह में बाधा उत्पन्न करते हैं। सरहद पर दोनों तरफ सामान ढोने वालों के स्थानीय जत्थे सक्रिय हैं। उनमें से कुछ पर न केवल जरूरी सूचनाएं उस पार तक पहुंचाने का संदेह है, बल्कि वे गफलत पैदा करने की कोशिश भी करते हैं। यही नहीं, पाकिस्तानी 'प्रॉपगैंडा मशीन' और वहां के दहशतगर्द हमारे बीच जमे स्थानीय अलगाववादियों की मदद से कच्चे मन के किशोरों को बरगलाने में अक्सर कामयाब हो जाते हैं। पाया गया है कि एक विदेशी आतंकवादी एक से पांच किशोरों को नियंत्रित करने की कोशिश करता है। अपनी बात समझाने के लिए एक घटना बताता हूं।
हुआ यूं कि जम्मू-कश्मीर पुलिस ने संयुक्त ऑपरेशन में 'टारगेट किलिंग' के एक अभियुक्त को मुठभेड़ में मार गिराया था। नियमानुसार उसका शव जब उसके घरवालों के सुपुर्द किया जा रहा था, तब उन्होंने आरोप जड़ दिया कि हमारे अबोध बच्चे को आपने 'एनकाउंटर' में मार गिराया है। वहां तैनात पुलिस अधिकारियों ने जब उन्हें उस किशोर की कॉल-डिटेल दिखाई, तो वे भौंचक्के रह गए। उनका बेटा उन्हें पिछले कुछ महीनों से यह कहकर भरमा रहा था कि मैं 'ऑनलाइन क्लासेज' ले रहा हूं, जबकि वह घंटे से डेढ़ घंटे तक सरहद पारके 'हैंडलर' से बात करता था। इन अपरिपक्व नौजवानों को उकसाकर लड़वा-मरवा देना, 'उनके' लिए 'किफायती' पड़ता है, क्योंकि 'उधर' से आए दहशतगर्द की ट्रेनिंग और उसके रखरखाव पर काफी खर्च करना होता है। उनकी बदनीयती देखिए। हमारे नौनिहालों की जान उनके जने दहशतगर्दों से सस्ती है।

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