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सोर्स - Jagran
दिव्य कुमार सोती : रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़े हुए छह महीने हो चुके हैं और फिलहाल इसके थमने के कोई आसार नहीं दिखते। पिछले कई दशकों के बाद यह पहला ऐसा युद्ध है, जो पारंपरिक और गैर पारंपरिक हथियारों के उपयोग के बीच इतने बड़े पैमाने पर लड़ा जा रहा है। यह युद्ध जितना सामरिक और सैन्य योजनाकारों के लिए अध्ययन का विषय है, उतना ही नेताओं और अर्थशास्त्रियों के लिए भी है। जब यह युद्ध शुरू हुआ था तो लगा था कि रूस आसानी से बहुत जल्दी विजय प्राप्त कर लेगा। फिर जब अमेरिका एवं नाटो की परोक्ष सैन्य और आर्थिक मदद के चलते यूक्रेन ने रूस की सेना का प्रतिरोध शुरू किया तो कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के चलते रूसी अर्थव्यवस्था लंबा युद्ध नहीं झेल पाएगी और व्लादिमीर पुतिन जल्दी ही युद्धविराम की घोषणा कर देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ।
यूक्रेन को दी जा रही अमेरिकी सैन्य सहायता के चलते रूसी सेना को भारी जान-माल का नुकसान तो उठाना पड़ा, परंतु पुतिन ने रूस की सीमाओं से नाटो सेनाओं को खदेड़ने का दृढ़ संकल्प नहीं छोड़ा। यह रूस के राष्ट्रीय चरित्र के अनुरूप ही है।
रूस वह देश रहा है, जहां हिटलर के आक्रमण के दौरान स्टालिनग्राद के मोर्चे को छोड़कर भागने वाले सैनिकों को सरकारी आदेश पर गोली मार दी गई थी और जर्मनी के भीषण हमले को विफल करने के लिए गर्भवती महिलाओं ने भी हथियार के कारखानों में काम किया था। यह स्वतंत्रता के बाद से भारत के राष्ट्रीय चरित्र से बहुत अलग है, जहां राजनीतिक नेतृत्व द्वारा युद्धों को खत्म करने की जल्दबाजी में भारत के सामरिक हित दांव पर लगाए जाते रहे।
1947 से ही भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने समय-समय पर लंबा सैन्य तनाव झेलने और युद्ध अपने तरीकों से लड़ने में अक्षमता दिखाई। जिन लक्ष्यों को लेकर सैन्य कार्रवाइयां शुरू की गईं, उन्हें लक्ष्य पूरा होने से पहले ही रोक दिया गया या फिर सैन्य सफलता को वार्ता की मेज पर गंवा दिया गया। फिर चाहे वह नेहरू सरकार द्वारा कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाना रहा हो या 1965 में लाहौर पर कब्जे के मौके को गंवा देना। 1971 में मिली जीत शिमला समझौते में गंवा दी गई तो कारगिल युद्ध के दौरान अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते भारतीय सेना को नियंत्रण रेखा पार कर कार्रवाई की अनुमति नहीं मिल पाई।
पिछले दो दशकों में इस प्रवृत्ति को औपचारिक जामा यह कहकर पहनाया जाता रहा है कि भविष्य के युद्ध तो बहुत छोटे होंगे और वे युद्ध कम, झड़पें अधिक होंगी, इसलिए भारत की सैन्य तैयारी उसी के अनुरूप होनी चाहिए। बालाकोट में हमले और पाकिस्तान के जवाबी आपरेशन के बाद से यह धारणा और प्रबल हुई है। तब पूरा मामला अभिनंदन की रिहाई पर केंद्रित होकर रह गया, वरना भारत उस स्थिति को लंबा खींचकर और अधिक लाभ उठा सकता था।
इसके उलट नाटो और रूस के परमाणु बलों के महीनों से उच्च स्तर के एलर्ट पर रहने के बाद भी रूस-यूक्रेन युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है। रूस और यूक्रेन, दोनों कभी उस सोवियत संघ का हिस्सा रहे हैं, जिसने चेर्नोबिल परमाणु हादसे को झेला था, पर उसके बाद भी परमाणु संयंत्रों पर कब्जे को लेकर सैन्य झड़पें जारी हैं, जो किसी परमाणु हादसे में बदल सकती हैं। साफ है परमाणु युद्ध का खतरा युद्ध को छोटा कर दे, ऐसा आवश्यक नहीं है।
यूक्रेन युद्ध नाटो के रूसी सीमा तक सैन्य विस्तार के चलते शुरू हुआ था। भारत के चारों ओर देखें तो अगले कुछ दशकों में ऐसी परिस्थितियों को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए चीन एक योजना के तहत जी695 हाईवे का निर्माण करने जा रहा है। पिछली सदी के छठे दशक में भारत की भूमि पर बनाए गए जी219 हाईवे के बाद यह दूसरा ऐसा बड़ा निर्माण होगा। जी219 के निर्माण ने ही उन परिस्थितियों को जन्म दिया था, जिनके चलते 1962 का भारत-चीन युद्ध हुआ। अब चीन द्वारा घोषित किया गया जी695 हाईवे वास्तविक नियंत्रण रेखा के उन इलाकों में से होकर गुजरेगा, जहां पर दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं।
इसी प्रकार चीन और पाकिस्तान मिलकर शक्सगाम घाटी से होकर मुजफ्फराबाद-यारकंद सड़क बनाने का सोच रहे हैं। यह न सिर्फ भारत के स्वामित्व वाले इलाके से होकर गुजरेगी, अपितु सैन्य सुरक्षा के लिहाज से भारत के सियाचिन जैसे सामरिक महत्व वाले क्षेत्रों में बड़ी सैन्य चुनौतियों को भी जन्म देगी। चीन नेपाल और भूटान में भी इसी प्रकार के प्रोजेक्ट की संभावनाएं तलाश रहा है। ऐसे में देर-सवेर भारत को इन सब गतिविधियों को लेकर वैसा ही कड़ा रुख अपनाना पड़ेगा, जैसा पुतिन ने नाटो के विस्तार को लेकर अपनाया है।
पाकिस्तान और बांग्लादेश आने वाले समय में बड़ी उथल-पुथल की ओर बढ़ रहे हैं, जो पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर सकती है। इस सबसे निपटने के लिए भी बड़े पैमाने पर सैन्य तैनाती या हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ सकती है। अफगानिस्तान और इराक की तरह रूस-यूक्रेन युद्ध यह भी बताता है कि वायु सेना और मिसाइलें सैन्य बढ़त देने में बेहद महत्वपूर्ण तो हैं, परंतु किसी एक पक्ष की जमीनी विजय बिना युद्ध का निर्णय नहीं हो सकता।
रूस ने युद्ध की शुरुआत में मिसाइलों की भारी वर्षा तो की, परंतु उसकी थल सेनाएं उतनी गति से बढ़त नहीं बना सकीं। भारत की सामरिक संस्कृति में ऐसी स्थिति में युद्ध रोक दिया गया होता, पर रूस तमाम प्रतिबंधों के बावजूद अपने सामरिक लक्ष्य पूरे किए बिना रुकने को तैयार नहीं है। संभवत: पुतिन ने वर्षों से इन आर्थिक प्रतिबंधों से निपटने की तैयारी की थी और गैस तथा खनिजों को लेकर यूरोप की रूस पर निर्भरता और भारत एवं चीन जैसे बड़े बाजारों की सस्ते तेल की आवश्यकता का वह युद्ध जारी रखने में भली-भांति उपयोग करने में सफल हैं।
भारत को भी इसी प्रकार विश्व अर्थव्यवस्था की अपने ऊपर निर्भरता बढ़ाने के लिए नीतिगत कदम और सुधार करने चाहिए और वैश्विक उत्पादन और आपूर्ति चेन में स्वयं की स्थिति मजबूत करनी चाहिए, ताकि उसे वैश्विक दबावों के चलते अपने सैन्य अभियान समय से पहले समाप्त न करने पड़ें।

Rani Sahu
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