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रहीस सिंह |
'वी आर रेडी टू क्रिएट वास्ट' यानी हम विशाल बनने के लिए तैयार हैं. यह वाक्य ताइवान मामलों के स्टेट काउंसिल कार्यालय और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के स्टेट काउंसिल इन्फॉर्मेशन कार्यालय ने 10 अगस्त को 'द ताइवान क्वेश्चन एंड चाइनाज रियूनिफिकेशन इन द न्यू एरा' शीर्षक से जारी एक श्वेत पत्र (व्हाइट पेपर) में लिखा है.
सवाल यह उठता है कि चीन विशाल बनने के लिए तैयार है, और किसी भी साम्राज्यवादी देश की यह महत्वाकांक्षा होती है लेकिन क्या दूसरा देश आपकी विशालता का स्वागत करने के लिए तैयार है? अगर यह विशालता थोपी हुई हो तो इसे यह नाम न देकर कोई दूसरा नाम ही दिया जाना चाहिए, मसलन साम्राज्यवाद, नवसाम्राज्यवाद अथवा विस्तारवाद. लेकिन इन तीनों को ही आधुनिक विश्व कैसे स्वीकार कर सकता है?
विशेषकर दुनिया के वे देश तो कदापि नहीं जो स्वयं को लोकतंत्र के अभिरक्षक या संरक्षक के रूप में पेश करते रहते हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या लोकतांत्रिक विश्व चीन को विशाल बनने से रोकेगा या फिर चीन की विशाल बनने की यह महत्वाकांक्षा ताइवान जैसे लोकतांत्रिक देश को निगल जाएगी?
चीन द्वारा जारी किए गए श्वेत पत्र में तीन बिंदुओं को अधिक महत्ता दी गई है. प्रथम- ताइवान चीन का हिस्सा है. द्वितीय - चीनी पुनः इस संकल्प को प्रदर्शित करते हैं कि चीन 'नेशनल रियूनिफिकेशन' के संकल्प के प्रति प्रतिबद्ध है. और तृतीय- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना और नए युग की चीनी सरकार की पोजीशन और पॉलिसीज क्या हैं. इसके साथ ही श्वेत पत्र में यह संकेत भी दिया गया है कि चीन किसी भी कीमत पर ताइवान को मेनलैंड के साथ रियूनिफाई करेगा.
तात्पर्य यह हुआ कि यदि ताइवान शांतिपूर्ण रियूनिफिकेशन का विरोध करेगा तो चीन बल प्रयोग के विकल्प को चुनेगा. अब सवाल यह उठता है कि ताइवान शांतिपूर्ण ढंग से चीन में विलय क्यों करना चाहेगा विशेषकर तब जब ताइवान स्वयं को एक स्वतंत्र देश मानता हो. भले ही कम्युनिस्ट चीन अपनी 'वन कंट्री-टू सिस्टम' जैसी अवधारणा के तहत ताइवान को अपने भूगोल का हिस्सा करार दे रहा हो.
श्वेतपत्र में चीन ने स्पष्ट किया है कि ताइवान प्राचीन काल से उसका हिस्सा रहा है और उसका यह स्टेटमेंट इतिहास और न्यायशास्त्र (ज्यूरिसप्रूडेंस) के ठोस आधार की अभिव्यक्ति है. खास बात यह है कि चीन द्वारा ताइवान पर जारी किया गया यह तीसरा श्वेत पत्र है जिसमें वह अपने पहले दो श्वेत पत्रों में निहित सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहा है. उसने पहला श्वेत पत्र 1993 में जारी किया था जिसमें उसने ताइवान को स्वायत्तता देने के साथ कई और वादे किए थे.
दूसरा श्वेत पत्र उसने वर्ष 2000 में जारी किया था जिसमें उसने वादा किया था कि चीनी सैनिक ताइवान की मीडियन लाइन को नहीं पार करेंगे. लेकिन क्या चीन अपने वादों पर खरा उतर पाया? नहीं, लेकिन अब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना ताइवान के प्रश्न को हल करने और चीन के पूर्ण एकीकरण को साकार करने के ऐतिहासिक मिशन पर प्रतिबद्धता का प्रकटीकरण कर रही है.
कुल मिलाकर चीन ताइवान के विलय को 'राष्ट्रीय कायाकल्प' बताकर एक ऐतिहासिक प्रक्रिया से गुजरना चाहता है. स्वाभाविक है कि इस प्रक्रिया के बीच आने वाली प्रत्येक बाधा को वह समाप्त करना चाहेगा. इसके लिए उसने पटकथा भी तैयार कर ली है जो बताती है कि पिछले सात दशकों में क्रॉस-स्ट्रेट्स पर जो शांतिपूर्ण प्रगति हुई थी अब वहां तनाव है जिससे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शांति और स्थिरता कम हुई है.
फिलहाल चीन का रवैया इतिहास के तमाम अध्यायों को फिर से सामने पेश करता दिख रहा है लेकिन दुनिया इतिहास के इन पृष्ठों पर लिखी विषयवस्तु पढ़ पा रही है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं. अगर पढ़ ले रही है तो ठीक लेकिन क्या कुछ याद कर पा रही है कि नहीं, यह अधिक महत्वपूर्ण है. जो भी हो, चीन ने कह दिया है कि इतिहास का पहिया राष्ट्रीय एकीकरण की ओर बढ़ रहा है जिसे कोई व्यक्ति अथवा ताकत अब रोक नहीं पाएगी. देखना यह है कि सफलता किसके हिस्से में आती है-कम्युनिस्ट चीन के या उनके, जिन्हें ताइवानी विचारक संयुक्त रूप से लोकतांत्रिक विश्व की संज्ञा दे रहे हैं?

Rani Sahu
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