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- सुरंग के पार रोशनी
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एक लंबा अरसा बीत गया। रोशनी के मायने बदल गए। पहले घरों में छोटे-छोटे लट्टू हुआ करते थे। बहुत जगहों पर तो सिर्फ एक दीया जलता था। उन्हीं की धुंधली रोशनी में घर की मां, दादी, बहुएं धुएं के बीच चूल्हे पर रोटियां बनाया करती थीं और पूरे का पूरा टब्बर (परिवार) वहीं, उस कालिख भरी रसोई में आसन बिछा कर और कभी-कभी ठंडे फर्श पर भी गर्व के साथ बैठ कर भोजन किया करता था। यह भी देख लिया जाता था कि पिताजी और बुजुर्गों ने भोजन कर लिया है या नहीं।उस भोजन का स्वाद कुछ अलग ही होता था, क्योंकि वह मेहनत की रोटी होती थी और उसके साथ सिर्फ कच्चे प्याज और हरी मिर्च की सब्जी भी बहुत भाती थी। इसका कारण यह भी था कि उसमें प्यार का तड़का लगा होता था। फिर धीरे-धीरे रसोई कुछ-कुछ चमकने लगी। लकड़ी, गोबर और कोयले के स्थान पर कहीं बत्ती वाला, तो कहीं पंप वाला पीतल का स्टोव काम में लिया जाने लगा।
JANSATTA