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एक मोटे अनुमान के अनुसार गंगा के सफाई अभियान से जुड़ी योजनाओं पर पच्चीस हजार हजार करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है। किसी भी विकासशील देश के लिए किसी एक संकल्प को पूरा करने के लिए यह राशि कम नहीं होती।
गंगा करोड़ों भारतीयों की आस्था का केंद्र है। माना जाता है कि यदि मरते समय व्यक्ति के मुंह में गंगाजल की दो बूंदें हों तो उसे मुक्ति मिल जाती है। लेकिन जिस नदी के जल के बारे में यह माना जाता रहा है कि उसका आचमन भी अमृतपान सरीखा सुख देने वाला है, वही नदी पिछले कई दशकों से प्रदूषण से जूझ रही है। हालत यह है कि अब वही गंगाजल नदी के प्रवाह के रास्ते में अनेक स्थानों पर आचमन लायक भी नहीं रह गया।
कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तर प्रदेश के निवासियों में होने वाली बीमारियों में से बारह प्रतिशत बीमारियों का कारण प्रदूषित गंगाजल का इस्तेमाल है। यह स्थिति डराती है, क्योंकि गंगा केवल पौराणिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व की ही नदी नहीं हैं, उसका आर्थिक योगदान भी बड़ा है। ढाई हजार किलोमीटर से ज्यादा प्रवाह वाली यह नदी अपने प्रवाह क्षेत्र में दस लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक धरती को सींचती है। इसीलिए इतिहास में सबसे अधिक हलचल गंगा के मैदानों में ही देखी जाती है। आज गंगा के प्रवाह क्षेत्र में देश का करीब छब्बीस प्रतिशत भूभाग आता है।
गंगा नदी का उदगम हिमालय क्षेत्र में गंगोत्री से होता है। इसका उत्स एक विशाल हिमनद है, जिसकी लंबाई पच्चीस किलोमीटर, चौड़ाई चार किलोमीटर और ऊंचाई करीब चालीस मीटर है। इस हिमनद में नंदा देवी, कामत पर्वत और त्रिशूल पर्वत की बर्फ पिघल कर आती है। गोमुख से निकलने वाली धारा को भागीरथी कहा जाता है। अलकनंदा और मंदाकिनी से मिलने के बाद गंगा की मुख्यधारा सृजित होती है।
ऋषिकेश से करीब एक सौ उनतालीस किलोमीटर पहले रुद्रप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा और मंदाकिनी का संगम होता है। अलकनंदा को विष्णुगंगा भी कहा जाता है। दो सौ किलोमीटर का सकरा रास्ता तय करने के बाद जब गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र का स्पर्श करती है तो उसका प्रवाह बहुत उद्दाम हुआ करता था। बहरहाल, बांधों ने नदी के उल्लास के पांवों में जंजीर बांध दी।का वेग अपने साथ अनेक प्रकार के अपशिष्टों को भी ले जाता था। नदी के प्रवाह को तो बांध दिया गया, लेकिन नदी जल में अपशिष्टों का प्रवाह समय के साथ इतना बढ़ता गया कि अनेक स्थानों पर गंगा जैसी नदी अपनी स्थिति पर आंसू बहाती प्रतीत होती है। हालांकि गंगा नदी के शोधन के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास साढ़े तीन दशक से भी अधिक समय से चल रहे हैं, लेकिन कई कारणों से उन कोशिशों के अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे।
पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) ने गंगा नदी की सफाई का काम अपेक्षित गति से नहीं होने पर अपना क्षोभ प्रकट किया। यह क्षोभ अकारण नहीं है। सन 1984 से तो गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए शुरू की गई योजनाओं पर भारी-भरकम धन खर्च होता रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार गंगा सफाई अभियान से जुड़ी योजनाओं पर पच्चीस हजार हजार करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है।
किसी भी विकासशील देश के लिए किसी एक संकल्प को पूरा करने के लिए यह राशि कम नहीं होती। गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने में यदि सफलता मिल जाती तो यह खर्च तर्क संगत प्रतीत होता, लेकिन विसंगति यह है कि अभी भी गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के संदर्भ में हालात नौ दिन चले अढाई कोस जैसे ही प्रतीत होते हैं। ऐसे में एनजीटी सहित हर संवेदनशीन व्यक्ति और संगठन के मन का क्षुब्ध होना स्वाभाविक
सोर्स-jansatta
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