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कटु सत्य यह भी है कि परिवारों में बुजुर्गों की भूमिका खत्म-सी हो गई है। छोटे परिवारों के बाद बने कामकाजी एकल परिवारों में मां-बाप भी अब बच्चों के बचपन से गायब हो रहें हैं। ऐसे अकेले वातावरण में बच्चे अपने मनोरंजन की चीजों के चयन के लिए स्वतंत्र हो गए हैं।इंटरनेट की दुनिया ने बच्चों और किशोरों के मनोमस्तिष्क को आक्रामक बना दिया है। इस संदर्भ को प्रमाणित करतीं तमाम घटनाएं देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। मोबाइल, इंटरनेट आदि की लत के शिकार बच्चे तक दहला देने वाले अपराध कर बैठते हैं। मोबाइल इस्तेमाल करने और पबजी जैसे हिंसक खेल खेलने से रोकने जैसी बात पर ही बच्चे माता-पिता को मार डाल डालने या खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। पिछले कुछ समय में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। कुछ महीने पहले लखनऊ में सोलह साल के एक किशोर ने अपनी मां की हत्या कर दी थी। कारण पता चला कि वह उसे मोबाइल पर पबजी खेल खेलने को मना करती थी। यह किशोर दसवीं कक्षा का छात्र था।ऐसी घटनाओं को देखते हुए लगता है कि इंटरनेट के माध्यम से उभरती इस हिंसा के समाज शास्त्र को समय रहते समझने और इस समस्या का समाधान खोजने की महती आवश्यकता है। ऐसी घटनाएं परिवार, समाज और सामाजिक परिवेश पर सवाल खड़े करती हैं। इन घटनाओं से लगता है कि बच्चों के सामाजीकरण में अपनी खास भूमिका का निभाने वाली परिवार और स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाओं की जिम्मेदारी कहीं न कहीं सिमटती जा रही है। इसका असर यह हुआ है कि बच्चे अपनी दुनिया अलग बनाते जा रहे हैं।
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