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- लोकतंत्रीय व्यवस्था
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते वक्त देश को पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का मिलना हमारी लोकतंत्रीय व्यवस्था में न केवल विश्वास को जाहिर करता है, बल्कि यह उन लोगों के मुंह पर तमाचा भी माना जा सकता है, जो भारत को आजादी देते वक्त हमारी लोकतंत्रीय समझ पर सवाल उठाने के साथ-साथ मजाक बना रहे थे। हमने इन 75 साल में सर्वोच्च सांविधानिक पद पर कमोबेश मुल्क के सभी वर्गों को नुमांइदगी देने की कोशिश की है। इस दौरान देश को तीन-तीन मुस्लिम राष्ट्रपति, दो महिला, दो दलित, एक आदिवासी राष्ट्रपति भी मिला और तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल तक सभी को प्रतिनिधित्व का मौका भी, इसके बावजूद यह सवाल वाजिब हो सकता है कि इन सब औपचारिकताओं को भले हमने पूरा कर लिया हो, पर क्या इस नुमाइंदगी का फायदा उन लोगों को मिला, जिनके नाम पर यह मुहर लगाई गई या केवल राजनीतिक तालियां बटोरी गईं? जवाब थोड़ा हां और थोड़ा ना हो सकता है, क्योंकि बहुत कुछ बदला भी और बहुत कुछ बाकी रह गया। कम से कम इस बात की तसल्ली तो हो सकती है कि हम सही रास्ते पर चल रहे हैं। इन नुमाइंदगी ने उन तमाम धारणाओं को गलत साबित किया, जो दुनिया के दूसरे देश और हमारे मुल्क में भी कुछ लोग बताते हैं कि भारत सिर्फ एक हिंदू राष्ट्र है; यह महिला, आदिवासी, दलित विरोधी समाज है।