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- कम हो हानि
श्रीलंका का संकट अभूतपूर्व और दुखद है। इसकी गिनती चंद वर्ष पहले तक दुनिया के खुशनुमा देशों में होती थी। कुछ सामाजिक पैमानों पर यह छोटा देश भारत से भी आगे रहा है। आतंकवाद के दौर मेें भी कभी श्रीलंका को ऐसी मुसीबत में नहीं देखा गया। 9 जुलाई को राष्ट्रपति भवन पर लोग विरोध के लिए उमड़ आएंगे, यह आशंका पहले से थी। सप्ताह के बाकी दिनों में किसी न किसी तरह से रोजी-रोटी की जुगाड़ में जुटे लोग शनिवार और रविवार को ही अपने मन की बात पूरी तरह से कहने में सक्षम हो पा रहे थे। तो इस शनिवार को लोगों ने मानो तय कर रखा था कि राष्ट्रपति भवन पहुंचकर इस्तीफा ले लेना है। खतरा देख राष्ट्रपति गोटाबाया पहले ही निकल चुके थे, तो लोगों ने सुरक्षाकर्मियों के साथ थोड़ी-बहुत झड़प के बाद राष्ट्रपति भवन पर एक तरह से कब्जा कर लिया। उपद्रव या विद्रोह के इस पक्ष को देखकर दुनिया दंग थी, लेकिन देर शाम प्रधानमंत्री के निजी आवास को जिस तरह से लोगों ने आग के हवाले किया, उससे चिंता बढ़ गई। 10 जुलाई को पुलिस सक्रिय हुई है और सेना भी सामने आने लगी है। विद्रोह को काबू में करने के लिए सैन्य अधिकारियों का मुखर होना जहां एक ओर स्वाभाविक लगता है, तो वहीं दूसरी ओर, यह चिंता भी सताती है कि कहीं यह देश हिंसा के नए दौर में न प्रवेश कर जाए।
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