- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- आबादी प्रदूषित वायु...
x
दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण मुख्य रूप से वाहनों से निकलने वाला धुआं है। हालात इतने गंभीर हैं कि हर आयु वर्ग का व्यक्ति, यहां तक कि छोटे बच्चे भी इस वायु प्रदूषण के कारण गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। सर्दी के मौसम की शुरुआत में यह स्थिति और विकराल हो जाती है।देश में प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है। वैसे तो प्रदूषण के कई प्रकार हैं। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, खाद्यान्न में प्रदूषण आदि। लेकिन धुआं, धूल और ध्वनि से होने वाला प्रदूषण जिस तरह तेजी से खतरनाक रूप ले चुका है, वह बेहद चिंताजनक है। कुछ समय पहले अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में वायु गुणवत्ता पर किए गए एक अध्ययन 'एअर क्वालिटी इंडेक्स' में यह सामने आया कि बांग्लादेश के बाद भारत दूसरा सबसे प्रदूषित देश है।
भारत की नब्बे फीसद से ज्यादा आबादी प्रदूषित वायु में सांस ले रही है। इनमें से भी तिरसठ फीसद लोग (लगभग सत्तर करोड़) तकनीकी रूप से बेहद खतरनाक वायु प्रदूषण का शिकार हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि भारतीयों की औसत उम्र पांच वर्ष कम हो गई है। उत्तर भारत में तो औसत उम्र साढ़े सात वर्ष कम हुई है। और देश की राजधानी दिल्ली के लोगों की औसत आयु दस साल कम हुई है।
इतना ही नहीं, इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर प्रदूषण बढ़ाने में भारत का योगदान चौवालीस फीसद रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार हवा में सूक्ष्म कणों की मात्रा (पीएम) ढाई से लेकर पांच माइक्रोग्राम के बीच होनी चाहिए, परंतु भारत के ज्यादातर इलाकों में वर्ष 2020 में यह मात्रा 76.2 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रही। यानी अधिकतम निर्धारित सीमा से पंद्रह गुना ज्यादा। अनेक अध्ययनों ने पराली जलने से वायु प्रदूषण होने के आरोपों का खंडन किया है और बताया है कि कुल वायु प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी बमुश्किल चार फीसद है, जबकि गाड़ियों के धुएं का प्रदूषण साठ फीसद से अधिक है। यहां तक कि कारखानों के प्रदूषण से भी ज्यादा है।गौरतलब है कि लगभग चालीस-पचास साल पहले कारखानों के धुएं का प्रदूषण सर्वाधिक होता था। मुंबई के चेंबूर इलाके को कारखानों के धुएं की वजह से 'गैस चैंबर' कहा जाने लगा था। कोयला अंचलों में और सीमेंट फैक्ट्री व चूने के काम वाले इलाकों में कोयले व धूल के जो कण निकलते हैं, उनका प्रभाव इतना अधिक है कि घरों के ऊपर और खेतों की जमीन के पर कोयले की काली परत, सीमेंट या एस्बेस्टस के इलाकों में चूने की सफेद परत और इसी प्रकार ताप बिजलीघरों के आसपास जमीन, मिट्टी, घर और यहां तक कि इंसान भी भूरे रंग से रंग जाते हैं।
छत्तीसगढ़ की हसदेव आदि नदियों का तो ताप बिजलीघरों से निकलने वाली राख से पानी का रंग सफेद होकर दूध जैसा हो जाता है। रायगढ़ जिला जो स्पंज आयरन और इस्पात उत्पादन का प्रमुख केंद्र है, वहां धूल, धुआं और राक्षसी गति से दौड़ते डंपरों से आम आदमी की जान हमेशा खतरे में बनी रहती है। इसीलिए विकास के इन रूपों पर भी सवाल तो खड़े होते हैं।
दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण मुख्यत: वाहनों से निकलने वाला धुआं है। हालात इतने गंभीर हैं कि हर आयु वर्ग का व्यक्ति यहां तक कि छोटे बच्चे भी इस वायु प्रदूषण के कारण गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। सर्दियों की शुरुआत में यह स्थिति और विकराल हो जाती है। जब यह मुद्दा शासन तंत्र के समक्ष उठता है और गंभीर रूप धारण करता दिखता है तो फिर सत्ता के केंद्र कुछ बातचीत और दिखावटी उपाय शुरू कर देते हैं, लेकिन स्थायी समाधान की दिशा में बढ़ता कोई नहीं दिखता।जब दिल्ली का धुआं सीमाओं को पार करने लगता है और श्रेष्ठीवर्ग और उनके परिवारों को प्रभावित करने लगता है, तब सत्ता तंत्र को यह चिंता जायज लगने लगती है। आज दिल्ली में एक करोड़ से ज्यादा वाहन हैं। एक ही परिवार में कई गाड़ियां रखने के चलन से यह समस्या ज्यादा बढ़ी है। जाहिर है, संपन्न तबका अपने हित और सुविधा को पहले देख रहा है।
सवाल है ऐसे में सरकार क्या कर सकती है? व्यावहारिक दृष्टि से ऐसे क्या कदम उठाए जा सकते हैं जो वायु प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में मददगार साबित हो सकें? हालांकि दिल्ली में इस समस्या से निजात पाने के लिए यातायात की सम-विषम व्यवस्था शुरू की गई थी। लेकिन राजनीतिक कारणों से और ज्यादातर लोगों के विरोध के कारण यह प्रयोग कामयाब नहीं हो पाया। इस व्यवस्था से इतना तो निश्चित था कि सड़कों पर वाहनों का दबाव कम होता और वायु प्रदूषण में भी कमी तो आती। लेकिन ऐसे प्रयोगों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का मजबूत होना जरूरी है, जिसका कि ज्यादातर शहरों में अभाव है।
जहां तक बात है ध्वनि प्रदूषण की, तो स्थिति यह है कि शहरों में बजते हार्न और वाहनों का शोर लोगों को बहरेपन की समस्या की ओर धकेल रहा है। समाज के दकियानूसी पन, नागरिक समझ का अभाव, कुरीतियां और अंधविश्वास भी इसके कारण हैं। नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल कोई नई समस्या नहीं है। रात दस या ग्यारह बजे बाद इनके इस्तेमाल पर पाबंदी का नियम ज्यादातर जगहों पर लागू है।
जनसत्ता
Admin2
Next Story