सम्पादकीय

मुफ्त बांटने की राजनीति का अर्थ

Admin2
16 July 2022 11:57 AM GMT
मुफ्त बांटने की राजनीति का अर्थ
x

जनता से रिश्ता वेबडेस्क : राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त सुविधाएं देने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। दूरगामी आर्थिक विकास की सोच इस पक्ष में नहीं है। कई राज्यों में यह भी देखने को मिल रहा है कि कर संग्रह बढ़ाने के मकसद से शराब की बिक्री पर अधिक जोर दिया जा रहा है, क्योंकि आय बढ़ाने के अन्य स्रोत वर्तमान में उनके पास नहीं हैं। लोकलुभावन आर्थिक विकास की इस सोच ने क्या समाज को विनाशकारी राह पर नहीं मोड़ दिया है?

आर्थिक विकास की नीतियां तब अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं जब उनमें राजनीतिक सोच और उसके फायदे हावी हो जाते हैं। अंतत: गरीब तबके का व्यक्ति इससे विकास की मुख्यधारा से छिटक जाता है और धीरे-धीरे आर्थिक स्थितियां विपरीत होने लगती हैं। पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक विकास के मोर्चे पर एक नई राजनीतिक सोच पैदा हुई है। अब लोकलुभावन विकास को जन कल्याणकारी योजनाओं द्वारा हर सत्तापक्ष भुनाना चाहता है, जिसका वास्तविक आधार कुछ वस्तुओं और सेवाओं को 'मुफ्त बांटना' हो गया है। मुफ्त बांटने की यह राजनीतिक सोच आर्थिक बदहाली को आमंत्रण दे रही है।
यह भी सच्चाई है कि हमारा लोकतंत्र जन कल्याण उन्मुख है। उसका उद्देश्य समाज का आर्थिक विकास करना तथा उसका अधिकतम फायदा गरीब तबके को उपलब्ध करवाना है। इसलिए मुफ्त बांटने की सोच इस संदर्भ में जायज भी दिखती है। वस्तुओं और सेवाओं को कम मूल्य या रियायती दरों पर उपलब्ध करवाना समाज के हित में है। सबसिडी देना भी उचित है, क्योंकि बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं, जिनको सरकारी आर्थिक सहायता की सदैव आवश्यकता रहती है। इनमें कृषि क्षेत्र प्रमुख है। उसी तरह दलितों का विकास भी मुख्य है।
दूसरी तरफ जब आर्थिक विश्लेषण के पक्ष पर यह देखने को मिलता है कि सभी सत्तापक्ष अपने भविष्य को और मजबूत रखने के लिए अपने लोकलुभावन वादों को अमली जामा पहनाने की कोशिश वित्तीय कर्जों के माध्यम से कर रहे हैं। और तो और, कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा तथा सेवाओं के विकास में कमी करके बचाई गई रकम को मुफ्त योजनाओं में लगा देते हैं। इस कारण ये मुफ्त की योजनाएं पूर्णत: अनुचित प्रतीत होती हैं।

यह चिंता आरबीआइ द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट में भी जाहिर है। वर्तमान परिदृश्य में दस राज्यों की आर्थिक स्थिति डावांडोल है, क्योंकि उनका वित्तीय कर्ज और राज्य के जीडीपी का अनुपात बहुत अधिक बढ़ रहा है। इन सबमें पंजाब की स्थिति विकट है। अन्य राज्यों में राजस्थान, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा हैं। इसके अलावा इन राज्यों का (उत्तर प्रदेश और झारखंड के अलावा) वित्तवर्ष 2021-22 में वित्तीय घाटा उनके जीडीपी के तीन प्रतिशत से अधिक था।
इन राज्यों में कर्ज पर ब्याज का भुगतान राजस्व का दस प्रतिशत से अधिक रहा है। वर्ष 2019-20 में मात्र ग्यारह राज्य वित्तीय मुनाफे में रहे थे। पंजाब इन दिनों मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं (बिजली, पानी आदि) के कारण बहुत चर्चा में है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2022-23 में मुफ्त में दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सुविधाएं, राज्य के जीडीपी का 25.6 प्रतिशत अनुमानित हैं, तो वहीं यह वित्तीय आय का 17.8 प्रतिशत है तथा कर संग्रहण का 45.4 प्रतिशत अनुमानित है। यह आंकड़ा आर्थिक विकास के मोर्चे पर चिंता और घबराहट का एक सूचक है।यह लोकलुभावन कदम इसलिए गलत है, क्योंकि इससे आर्थिक नीतियां बुरी तरह प्रभावित होती हैं। इसके विपरीत आज जरूरत है कि सभी राज्य अपने यहां डिजिटल तकनीक और सामाजिक सुविधाओं के बुनियादी ढांचे को तेजी से विकसित करें तथा आर्थिक नीतियों को रोजगारोन्मुख बनाने को सर्वोपरि रखें। मुफ्त बांटने की इन योजनाओं के चलते राज्यों के पूंजीगत खर्च लगातार कम होते जा रहे हैं, जिसके कारण नई संपदा का विकास नहीं हो रहा और आय नहीं बढ़ रही है। यह सोच भविष्य के बहुत बड़ा आर्थिक संकट का द्वार है।
आंकड़ों के मुताबिक राज्यों द्वारा दी जाने वाली विभिन्न सबसिडी पर कुल खर्च वित्तवर्ष 2021-22 में 11.2 प्रतिशत से बढ़ा है। पिछले तीन वर्षों में इस पक्ष पर झारखंड, केरल, ओडीÞशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश मुख्य रहे हैं। रिपोर्ट में प्रस्तुत एक बात और चिंता का सबब है कि पिछले कुछ वर्षों से राज्यों के संदिग्ध दायित्वों का आर्थिक बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसके अंतर्गत विभिन्न राज्य सरकारी निकाय वित्तीय कर्ज ले रहे हैं, जिनकी गारंटी राज्य सरकारें दे रही हैं। क्रिसिल की ताज रिपोर्ट के अनुसार वित्तवर्ष 2021-22 के अंतर्गत राज्यों के संदिग्ध आर्थिक दायित्व जीडीपी के 4.5 प्रतिशत के बराबर हो गए हैं। इन सबमें मुख्य भूमिका राज्यों के विद्युत विभाग की है, जिनके हिस्से में चालीस प्रतिशत का दायित्व आ रहा है। अन्यों के अंतर्गत सिंचाई, बुनियादी ढांचे का विकास, भोजन और पानी की आपूर्ति के क्षेत्र मुख्य हैं।
कुछ राज्यों का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। मतलब स्पष्ट है कि राज्यों की कमाई और ख़र्च के बीच में अंतर लगातार गहरा रहा है। आरबीआइ की रिपोर्ट के अनुसार आंध्र प्रदेश, बिहार, राजस्थान और पंजाब में राजकोषीय घाटा वर्ष 2020-21 में पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा निश्चित किए गए स्तर से ऊपर था। दूसरी तरफ इन राज्यों के स्वयं के कर संग्रहण में भी लगातार कमी हो रही है, जो कि चिंताजनक है। आरबीआइ की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार इन दस राज्यों के अंतर्गत बिहार की हालत बहुत चिंताजनक है, क्योंकि इसका खुद का कर संग्रह पिछले पांच वर्षों में कुल कर संग्रह का मात्र 23.5 प्रतिशत है, जबकि केंद्र पर इसकी निर्भरता करीब 75 प्रतिशत है।
आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2017-18 से 2021-22 के अंतर्गत औसतन केंद्रीय हस्तांतरण और अनुदान का प्रतिशत पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखंड और बिहार में पचास प्रतिशत के ऊपर रहा है। इसके अलावा गैर-कर राजस्व का प्रतिशत पिछले पाच वित्तीय वर्षों में सबसे कम पश्चिम बंगाल में रहा है। राजस्थान में 43 प्रतिशत का अंशदान स्वयं के कर संग्रहण का है। करीब 45 प्रतिशत केंद्रीय हस्तांतरण और अनुदान का अंशदान है तथा बाकी 11.4 प्रतिशत गैर-कर राजस्व का योगदान है। इन राज्यों के खर्चों में वेतन, पेंशन और ब्याज का खर्चा बहुत अधिक मात्रा में हो रहा है, जिसके कारण लगातार विकास की योजनाओं पर खर्च कम होता जा रहा है। पिछले दो वित्तवर्ष में लगातार कोरोना की मार भी आर्थिक स्तर पर बुरी पड़ी है। इस बीच अठारह वर्ष बाद पुरानी पेंशन योजना को वापस लाना भी भविष्य के सफल आर्थिक नियोजन पर एक प्रश्न है।
राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त सुविधाएं देने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। दूरगामी आर्थिक विकास की सोच इस पक्ष में नहीं है। कई राज्यों में यह भी देखने को मिल रहा है कि कर संग्रह बढ़ाने के चक्कर में शराब की बिक्री पर अधिक जोर दिया जा रहा है, क्योंकि आय बढ़ाने के अन्य स्रोत वर्तमान में उनके पास नहीं हैं। लोकलुभावन आर्थिक विकास की इस सोच ने क्या समाज को विनाशकारी राह पर नहीं मोड़ दिया है? क्या अगली पीढ़ी को आर्थिक सुरक्षा मिल पाएगी? कल्याणकारी योजनाओं से संबंधित राज्यों के विभिन्न सरकारी निकाय चाहे, वह परिवहन से संबंधित हो, विद्युत और जल से संबंधित हो, उनके पास इससे संबंधित कोई आर्थिक योजना नहीं होती है। उन्हें यह घाटा प्रत्यक्ष रूप से वहन करना ही पड़ता है। धीरे-धीरे यह आर्थिक घाटा ही उनकी वित्तीय अकुशलता बन जाता है और बाद में सरकार आर्थिक सुधारों के अंतर्गत उनके निजीकरण को प्राथमिकता दे देती है।
अब लगातार विपरीत होती जा रही कुछ राज्यों की आर्थिक स्थिति को तुरंत संभालना होगा। पड़ोसी मुल्क श्रीलंका इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि किस तरह विदेशी कर्ज ने उसे बर्बाद किया। भारत की अर्थव्यवस्था आज वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान रखती है, परंतु राज्यों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति विदेशी निवेशकों के लिए एक घबराहट का सूक बनती जा रही है। इसे तुरंत रोकना होगा, वरना इस संकट के प्रभाव मुल्क की आर्थिक स्थिति पर भी जल्द ही दिखने लग जाएंगे।
source-jansatta


Admin2

Admin2

    Next Story