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- जिंदगी की अदृश्य डोर
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : लट्टू के खेल के अमूमन हम सभी साक्षी रहें हैं । रस्सी से उसे लपेटकर कुछ इस झटके से छोड़ा जाता कि वह अपनी ही धुरी पर तेज रफ्तार में घूमने लगता। हुनरमंद खिलाड़ी कभी उसे अपनी हथेली पर ले लेता तो कभी जमीन पर पटक देता। लट्टू काफी देर तक सबका मनोरंजन करते हुए मनमोहक अंदाज में देर तक घूमता रहता। कुछ समय पहले एक पर्यटक स्थल पर जाना हुआ। वहां एक जगह कोल्हू का एक बैल मुहावरे से निकल मेरे सामने वास्तविक रूप से चक्कर लगा रहा था। यह पारंपरिक पद्ति पर्यटकों को खासी रोमांचित कर रही थी।
बैल बिना रुके अपनी नजरों को जमीन पर गड़ाए गोल घूमता जा रहा था। उसके इस तरह घूमने से घानी से तेल निकल रहा था। लट्टू का खेल एक बार फिर याद आया, जब सर्कस के पिंजरे के भीतर एक शेर को देखा। इस बार भी बहुत अंतर था लट्टू के घूमने और शेर के घूमने में। पिंजरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगातार बिना रुके शेर चक्कर लगा रहा था। बीच-बीच में जोर से दहाड़ता, मानो अपने जीवित होने का प्रमाण दे रहा हो। शेर की गर्जना से लोग रोमांचित-आनंदित होते, तालियां बजाते रहे।
इन दृश्यों में जो बात मुझे लट्टू के घूमने से मिलती-जुलती महसूस हुई, वह थी हर जगह घूमने की प्रक्रिया में किसी डोर या बंधन की जकड़न और अन्य व्यक्ति के निर्देशों के अनुसार सक्रिय रहने और चक्कर खाते रहने की विवशता की उपस्थिति। दूसरे शब्दों में एक तरह की परतंत्रता के बीच काम करने की बाध्यता। लट्टू को बिना रस्सी के नहीं नचाया जा सकता और जीवन में भी ऐसे ही कई लट्टू हैं जो किसी न किसी डोर के जोर पर घूमते रहते हैं। यह भी जरूरी नहीं कि जीवन के लट्टू को घुमाने वाली हर रस्सी दिखाई देती हो। वह कोई अदृश्य बंधन या दबाव भी हो सकता है।
इस तरह की कई डोरें अलग-अलग रूप में हम सभी के बीच उपस्थित रहती है। कुछ बंधन हमें सही दिशा देते हैं। हमारी सफलता और सुख को सुनिश्चित करते हैं, वहीं कुछ ऐसी जकड़न भी हैं जो हमारी स्वतंत्रता को, हमारे मूलभूत अधिकार को हमसे छीनने के लिए सुनियोजित तरीके से हम पर थोप दी जाती हैं। हम धीरे-धीरे उनके अधीन होते जाते हैं। हमें पता ही नहीं चल पाता कि यह कब कैसे अनायास हमारे साथ घटित होता चला गया है।
यह बंदिश जीवन के उजले पक्ष से हमें दूर करती है, खुद के लिए निर्णय लेने से रोकती है, व्यक्तिगत आजादी का दमन करती है, खुद के प्रति आस्था को समाप्त कर देती है, सुख, शांति, संतुष्टि जैसे भावों को जीवन से लुप्त कर देती है। मौलिकता से दूर, निर्भरता और गुलामी की ओर किसी भी जीते-जागते इंसान को धकेल सकती है। नवीन विचार शून्य होते जाते हैंयह सब किसी वशीकरण की तरह ही काम करने लगता है। हम वही सुनते-समझते, गुनने लगते हैं जो हम तक अदृश्य डोर से संकेत की तरह पहुंचाया जाता है। उसके बाद तो बस रस्सी को सही तरह से झटका देना शेष रह जाता है। फिर नाच वैसा ही होता है जैसा लट्टू नाचता है। किसी और के इशारों पर हम थिरकने लगते हैं।
हमेशा से ताकतवर कमजोर को अपनी धुन पर नचाता आया है। शारीरिक-आर्थिक कमजोरी ही नहीं, कभी-कभी हमारी संवेनशीलता, परिपक्वता, विनम्रता भी हमें कमजोर बना देती है। हम खुद ही बेड़ियां पहन दूसरों के इशारों पर जीवन जीने लगते हैं। यकीनन दूसरों की सेवा में बीता जीवन श्रेष्ठ माना जाता रहा है। ऐसे में यह समझना बेहद आवश्यक है कि हम जरूरतमंद की मदद कर रहे हैं, अपने हितैषी की बात सुन रहे हैं या किसी कुचक्र या जाल में उलझते जा रहे हैं।
निर्दोष जीव-जंतु बिना किसी कारण आजीवन कैद में असहनीय पीड़ा में जीवन व्यतीत करते नजर आते हैं। उनके दुख हमारे मनोरंजन और जरूरतों की पूर्ति में कहीं दब से जाते हैं। हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के सामने उनका अस्तित्व ही नगण्य हो जाता है। हममें से कई लोग उनकी तरह पिंजरे में कैद भले नहीं होंगे, पर मानसिक गुलामी का जीवन जीते दिखाई दे ही जाते हैं।कई लोग दूसरों की अनावश्यक अपेक्षाओं, ज़रूरतों, निराशाओं का बोझ ढोते जीवन का भार उठाए हुए हैं। जबकि हम सबका अपना जीवन है, जो हम सभी को खुद ही जीना है। किसी और की मदद हम कर सकते हैं, पर उनका जीवन हम नहीं जी सकते। हालांकि कई जिम्मेदारियां ऐसी भी होती हैं जिनके चलते हमें एक ही धुरी पर कई बार लंबे समय तक चक्कर लगाना पड़ता है, पर यकीनन वे जिम्मेदारियां हमें खुशी देती हैं। हमारी उड़ान रोकती नहीं हैं, उसे और सकारात्मक ऊर्जा से भर कर हमें ऊंचा उड़ने में सहयोग देती है। यही अंतर हमें समझ लेना चाहिए और उन बेड़ियों से आत्मसम्मान के साथ सही समय पर मुक्त हो जाना चाहिए, जो हमें किसी लट्टू की तरह जीवन भर घूमते रहने को विवश कर देती हों।
सोर्स-JANSATTA
Admin2
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