सम्पादकीय

तो क्या हैं हम

Admin2
10 July 2022 11:55 AM GMT
तो क्या हैं हम
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : कठोपनिषद की पंक्ति है- आत्मनम् प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्। हमें अपनी बुराई किसी भी रूप में पसंद नहीं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी कमियां बताए। तारीफ ही तारीफ चाहिए हमें। मगर दूसरों की बुराई करने में बड़ा रस आता है। दूसरों की कमियां खुर्दबीन लेकर ढूंढ़ते फिरते हैं। फिर दूसरे की कमियां गिना कर अपनी श्रेष्ठता साबित करने में एड़ी-चोटी का दम लगा देते हैं।यह कभी नहीं सोचते कि जिस तरह हमें अपनी बुराई सुन कर दुख होता है, बुरा लगता है। अपनी कमियां गिनाने वाले के प्रति क्रोध उपजता है, वैसे ही दूसरे को भी आता होगा, जब हम उसकी बुराई करते हैं, उसकी कमियां गिनाते हैं। अगर यह बोध हो जाए तो कठोपनिषद की इस पंक्ति का मर्म भीतर उतर जाए। आत्मनम् प्रतिकूलानि…। जो आचरण, व्यवहार, जो बात हमें बुरी लगती है, वैसा व्यवहार, वैसा आचरण दूसरों के प्रति भी न करें। परेषाम् न समाचरेत।…

सुभाषित रूप में यह कथन तो बहुत लुभाता है, पर व्यवहार में उतर नहीं पाता। उतरे भी कैसे, जब तक हम अपनी श्रेष्ठता साबित करने की होड़ नहीं छोड़ेंगे, तब तक उतरेगा भी नहीं। हमने तो मुगालता पाल रखा है कि हम ही हम हैं, दूसरा कोई नहीं। प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत् तो तब जीवन में उतरे जब हम समझ लें कि हम ही हम हैं तो क्या हम हैं…। मगर कठिन काम है यह बोध पैदा होना। इसके लिए अपने देखने का केंद्र बदलना होगा।अपने को देखने का ढंग बदलना होगा। यह बहुत मुश्किल नहीं, बस थोड़ा अभ्यास करना पड़ता है। अगर इतनी-सी बात समझ लें कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं, जिसमें कोई विशेषता नहीं। हर व्यक्ति में कोई न कोई ऐसी बात जरूर होती है, जो उसे दूसरों से अलग करती है। दूसरा हमसे अलग है, तो इसीलिए कि वह किसी न किसी रूप में हमसे विशिष्ट है। हमसे विशेष कोई बात है उसमें। मगर हम तो इतराए फिर रहे हैं कि साहब हम हैं, तो खास हम ही हैं, विशिष्ट हम ही हैं।
जितना बड़ा ओहदा उतना ही बड़ा घमंड लिए फिरने लगते हैं कि श्रेष्ठ तो हम ही हैं, दूसरे सब मातहत हैं इसलिए हमसे तुच्छ हैं, छोटे हैं। सारे श्रेष्ठ गुण हममें ही हैं। दूसरे सारे अवगुणों की खान हैं। इस तरह हम दूसरों से सीखने के सारे दरवाजे बंद करते चले जाते हैं। हमने चूंकि खुद को श्रेष्ठ मान लिया है, इसलिए जो कुछ हमारे मन में आता है वही सारी मानव जाति के लिए कल्याणकारी लगता है। पीछे जो लोग कुछ कर गए सब पुराना, दकियानूसी, निकृष्ट जान पड़ता है। फिर हम सारे पुरानों के किए-धरे को मिटाना शुरू कर देते हैं। या करते चलते हैं, नए पर अपने नाम अंकित करते चलते हैं।
फिर इतराते हैं कि जो हमने किया वही सर्वश्रेष्ठ है। हम सुनना ही नहीं चाहते कि जो हमने किया उसमें कोई कमी भी है। अपनी कमी सुनना पसंद जो नहीं हमें। अब तो विज्ञन भी कहता है कि जब हम दूसरे को किसी भी रूप में पीड़ा पहुंचाते हैं, दुख देते हैं, चाहे वह व्यवहार से हो, वाणी या कर्म से तो सामने वाला बेशक आपके प्रभाव में दब या संकुचित होकर न कहे, पर उसके भीतर से जो तरंगें निकलती हैं, वे नकारात्मक ही होती हैं।
नकारात्मक तरंगें अपना असर भी दिखाती हैं। आपके जीवन पर बुरा असर डालती ही हैं। यह अनेक अध्ययनों से साबित हो चुका है कि दूसरे के भीतर उठती तरंगें आपके मन पर, आपके स्वभाव पर बुरा प्रभाव डालती हैं। इसीलिए तो कहा कि आत्मनम् प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्। जो आपको नहीं पसंद वैसा व्यवहार दूसरों से भी न करें। मगर हम यह तो बहुत जल्दी सीख जाते हैं कि जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे। खुशामदी हैं हम। जान भर जाएं कि हमें लाभ पहुंचाने वाले को क्या पसंद है, फिर तो हम उसकी पसंद का ही सब कुछ करना शुरू कर देते हैं।मगर जो हमें कोई प्रत्यक्ष लाभ पहुंचाने की हैसियत नहीं रखता, उसकी पसंद तो जान-बूझ कर मिटाने में लग जाते हैं। इस बात की परवाह ही नहीं कि उसे हमारी किस बात से तकलीफ पहुंच सकती है। बल्कि, उसे तो तकलीफ पहुंचा कर हम सुख ही पाते हैं, गर्व करते हैं कि हमने उसे तकलीफ पहुंचाई। तकलीफ से उसके चेहरे पर आए भाव का बखान दूसरों से भी करने से नहीं चूकते।जब हम दूसरों को तकलीफ, पीड़ा पहुंचाने वाले व्यवहार की परवाह नहीं करते, उसे बदलने का प्रयास नहीं करते, तो हमारे भीतर बहुत सारी विकृतियां जड़ जमाने लगती हैं।
हम परपीड़क बन जाते हैं। दूसरों को पीड़ा पहुंचाने का सुख लेने लगते हैं। किसी को पीड़ा पहुंचा कर गर्व करना शुरू कर देते हैं। दूरियां बना लेते हैं एक बड़े समुदाय से। उनकी परछाई तक से बचने लगते हैं। उन्हें कीड़े-मकोड़ों की तरह देखने लगते हैं। उन्हें अपने से दूर करते चलते हैं। इस तरह हमें यह बोध ही कभी नहीं हो पाता कि इतने सारे लोगों के भीतर से उठती हमारे प्रति नकारात्मक तरंगें हमारे जीवन पर क्या प्रभाव डाल रही हैं।
लोक में बहुत सारे कथन हैं, बहुत सारी बातों के लिए मनाही है। अगर आप किसी को किसी भी रूप में पीड़ा पहुंचाते हैं तो गांव का बिल्कुल अपढ़ आदमी भी छूटते ही बोल देगा- उसकी हाय लगेगी। वही कबीर की सीख- मरी खाल की सांस सों लौह भसम होई जाय। हम सब जानते हैं- लोक और शास्त्र की बातें, मगर उन पर अमल नहीं करते, जान-बूझ कर। करने लगें, तो जीवन की न जाने कितनी तकलीफें दूर हो जाएं।
SOURCE-JANSATTAतो क्या हम हैं


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