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दल-बदल कानून में कुछ नए प्रावधानों को शामिल करने की जरूरत है। मसलन, दल-बदल पर सदस्यों को अयोग्य ठहराए जाने के मामले में निर्वाचन आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति या राज्यपाल का निर्णय अंतिम होना चाहिए। इस संबंध में चुनाव आयोग की भूमिका का भी विस्तार किया जाना चाहिए। दूसरा, राजनीतिक दलों के विप जारी करने के अधिकार को सीमित किया जाना चाहिए। इसे तभी जारी करना चाहिए, जब सरकार सदन में विश्वासमत के खतरे से जूझ रही हो।
सत्ता के लिए सत्य और बहुमत के मध्य का संघर्ष कोई नई बात नहीं है। महाराष्ट्र में सियासी संकट के बीच उद्धव सरकार के त्यागपत्र के बाद नई सरकार के गठन की आजमाइश शुरू हो गई है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर दल-बदल में शामिल विधायकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग की गई है। विचारणीय प्रश्न है कि संविधान में दल-बदल निरोधक प्रावधानों के होते हुए भी यह राजनीतिक तोड़-फोड़ रुक क्यों नहीं रही?
आजादी के मात्र दो दशकों के भीतर ही भारतीय राजनीति में सत्ता लोलुपता और अवसरवादी राजनीति का विद्रूप दौर प्रारंभ हो गया और सैद्धांतिक-राजनीतिक मूल्यों की तिलांजलि दी जाने लगी। राजनीतिक दलों द्वारा जनादेश की अनदेखी करते हुए जोड़-तोड़ कर सरकारें बनाई और गिराई जाने लगीं। दल-बदल को प्रश्रय मिला। इस घातक परंपरा तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण की संवैधानिक रोकथाम के लिए 1985 में दल-बदल कानून पारित हुआ। इसके तहत संविधान के चार अनुच्छेदों क्रमश: 101, 102, 190 और 191 को संशोधित किया गया तथा दसवीं अनुसूची भी जोड़ी गई।
इस अधिनियम के तहत किसी भी राजनीतिक दल के उस सदस्य को संबंधित सदन की सदस्यता के अयोग्य माना गया है, जो अपने दल की सदस्यता त्याग कर सदन में अपने दल के निर्देशों के विपरीत मत देता या मतदान के समय अनुपस्थित रहता है। निर्दलीय सदस्य के संबंध में, अगर वह निर्वाचित होने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है, तो अयोग्य हो जाता है। मनोनीत सदस्य अगर सदस्यता पाने के छह माह बाद किसी दल की सदस्यता ग्रहण कर ले, तो उसे भी अयोग्य माना जाएगा।
दल-बदल के कारण उत्पन्न अयोग्यता संबंधी विवादों पर निर्णय का अधिकार सदन के अध्यक्ष को प्राप्त है। इसके अलावा दसवीं अनुसूची के उपबंधों को प्रभावी बनाने के लिए विनियम निर्माण की शक्ति भी सदन के अध्यक्ष को दी गई है। हालांकि ऐसे नियमों को सदन के समक्ष तीस दिन के लिए रखना आवश्यक है तथा सदन इन नियमों को स्वीकृत-अस्वीकृत या उनमें सुधार कर सकता है। मगर प्रथम दृष्टतया आकर्षक लगने वाली दसवीं अनुसूची के उपबंध आलोचना से परे नहीं हैं। इसके मुख्यत: दो आधार हैं।
प्रथमत:, व्यक्तिगत दल-बदल का निषेध करते हुए यह व्यापक आधार पर दलबदल को प्रोत्साहन देता है। द्वितीय, अयोग्यता से दी गई छूट के उपबंधों के कारण इसने सरकारों को अस्थिर करने में सहयोग ही किया है। इसके अलावा, उक्त अधिनियम के अंतर्गत नामित और निर्दलीय सदस्यों के मध्य किया गया भेद पूर्णत: अतार्किक है। नामित सदस्य किसी दल की सदस्यता ग्रहण कर सकता है, किंतु निर्दलीय सदस्य ऐसा करे तो वह अयोग्य हो जाता है। साथ ही दसवीं अनुसूची के उपबंध किसी सदस्य के दल-बदल और उसकी असहमति के मध्य विभेद को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। ये विधायिका के स्वविवेक और विचारों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते हैं, जिससे दलीय अनुशासन के नाम पर दल की अधिकारिता को और विस्तार मिलता है।
सदन के अध्यक्ष के निर्णय की शक्ति भी आलोचना से परे नहीं है। पहला तो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण उसका निर्णय दूषित होने की संभावना बलवती होती है। पिछले कई वर्षों से कई राज्यों की विधानसभाओं में अध्यक्ष द्वारा अपने संबंधित राजनीतिक दल के अनुकूल किए गए निर्णय विवादों के घेरे में रहे। दूसरे, ऐसे मसलों पर निर्णय हेतु अध्यक्ष के पास आवश्यक विधिक ज्ञान और अनुभव की न्यूनता भी हो सकती है।
दल-बदल से उत्पन्न अयोग्यता संबंधी प्रश्नों को शुरू में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर समझा जाता था। किंतु 'किहोतो-होलोहन बनाम जाचिल्हू' मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय ने इस उपबंध को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि अध्यक्ष दसवीं अनुसूची के आधार पर अयोग्यता संबंधी किसी प्रश्न पर निर्णय देने के समय एक अयोग्य की तरह कार्य करता है। इसलिए किसी अन्य न्यायिक अधिकरण की तरह उसका भी निर्णय निष्पक्षता, प्रतिकूलता, दुर्भावना आदि के आधार पर न्यायिक समीक्षा की परिधि में आता है। अत: यह उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
बाद के अनुभव बताते हैं कि उपरोक्त संविधान संशोधन लक्षित संभावनाओं की पूर्ति में असफल रहा। इसमें कई प्रावधानों की आलोचना राजनीतिक दलों, नेताओं ने ही नहीं, बल्कि संवैधानिक समितियों और आयोगों तक ने की। उन्होंने इसमें परिवर्तन की अनुशंसा की। इस संबंध में संविधान समीक्षा आयोग ने कुछ और सुझाव दिए। आयोग का मानना था कि दल-बदल करने वाले जनप्रतिनिधियों को मंत्री जैसे संवैधानिक पद समेत अन्य सार्वजनिक या राजनीतिक लाभ के पद से बर्खास्त किया जाना चाहिए। यह बर्खास्तगी तब तक जारी रहनी चाहिए जब तक कि वर्तमान विधायिका का कार्यकाल पूरा न हो या चुनाव के बाद नई विधायिका का गठन न हो जाए।
उपरोक्त विमर्श और सुझावों के आलोक में इक्यानबेवां संविधान संशोधन अधिनियम (2003) पारित हुआ, जिसके अंतर्गत कुछ मुद्दों पर सुधार का प्रयास किया गया। सामान्यतया दल-बदल करने वाले नेताओं की अभिलाषा केंद्र या राज्य सरकार के अधीन संवैधानिक-सांविधिक पदों के अतिरिक्त राजनीतिक लाभ के पद प्राप्त करने की होती है।
किंतु उक्त संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 75 और अनुच्छेद 164 के अंतर्गत केंद्र या राज्य सरकार के अधीन मंत्रिपरिषद का आकार, सदन के कुल सदस्यों की संख्या का पंद्रह फीसद नियत कर दिया गया। साथ ही संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का कोई सदस्य जो दल-बदल के आधार पर अयोग्य घोषित किया गया हो, वह कोई मंत्री पद या राजनीतिक लाभ के पद के अयोग्य माना गया। यानी दल विभाजन के आधार पर अयोग्यों के लिए कोई अन्य संरक्षण प्राप्त नहीं है। इस प्रकार संसदीय परंपरा में पैठी राजनीतिक चरित्रहीनता और अवसरवाद को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया गया।
हालांकि इसके बावजूद परिणाम उत्साहजनक नहीं रहे। राज्य ही नहीं, केंद्र की सरकार भी अवसारवादी गठबंधनों द्वारा गठित और पतित होती रही। वर्तमान में महाराष्ट्र सरकार का पतन इसका ज्वलंत उदाहरण है। कुछ दिनों पूर्व उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने दल-बदल विरोधी कानून की विसंगतियों पर चिंता जाहिर करते हुए इसे और प्रभावी बनाने हेतु इसमें संशोधन की सलाह दी। वर्तमान अवसरवादी राजनीति ने जिस तरह संवैधानिक मूल्यों का क्षरण किया है, उसे देखते हुए दल-बदल के मुद्दे पर गंभीर विमर्श और अविलंब संवैधानिक सुधार जरूरी है।
दल-बदल कानून में कुछ नए प्रावधानों को शामिल करने की जरूरत है। मसलन, दल-बदल पर सदस्यों को अयोग्य ठहराए जाने के मामले में निर्वाचन आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति या राज्यपाल का निर्णय अंतिम होना चाहिए। इस संबंध में चुनाव आयोग की भूमिका का भी विस्तार किया जाना चाहिए। दूसरा, राजनीतिक दलों के विप जारी करने के अधिकार को सीमित किया जाना चाहिए।
इसे तभी जारी करना चाहिए, जब सरकार सदन में विश्वास मत के खतरे से जूझ रही हो। कानून विशेषज्ञ और भाषाविद फर्डिनांड लासाल लिखते हैं, 'संवैधानिक प्रश्न, सबसे पहले, औचित्य के प्रश्न नहीं, बल्कि सत्ता के प्रश्न हैं। किसी भी देश के वास्तविक संविधान का अस्तित्व देश में मौजूद सत्ता की वास्तविक अवस्थिति में होता है: इसलिए राजनीतिक संविधानों में मूल्य और स्थायित्व तभी आता है, जब वे समाज के भीतर अस्तित्वमान शक्तियों की अवस्थिति को यथार्थ रूप से व्यक्त करते हैं।'
वर्तमान संकट सत्ता का नहीं, बल्कि मूल्यों का है। मूलभूत प्रश्न यह नहीं कि कौन सही है? प्रश्न है कि क्या सही है? सत्ता के लिए मूल्यों की तिलांजलि देने वाले जनप्रतिनिधियों से किसी शुभ की कल्पना बेमानी होगी। ऐसी विघटनकारी प्रवृत्तियों का निषेध ही लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल बनाएगा। source-jansatta
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