सम्पादकीय

खोल मन की गांठें

Admin2
28 Jun 2022 1:56 PM GMT
खोल मन की गांठें
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जनता से रिश्ता हाल ही में एक खबर समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर सुर्खियों में बनी रही। कथित ऊंची जाति के एक व्यक्ति ने खाना पहुंचाने वाली एक नामी कंपनी के लड़के से खाना लेने से पहले उसका नाम और जाति पूछी। जब उसे पता चला कि वह दलित है, तो उससे न सिर्फ खाना लेने से मना कर दिया, बल्कि उसने खाने का आदेश रद्द करने की बात नियमत: की।फिर उसकी जाति को गरियाते हुए उसके मुंह पर थूक भी दिया। इस घटना के निहितार्थ सामान्य नहीं हैं। इसके परिणाम दूरगामी और असंतोषजनक हैं। अनेक सवाल खड़े करते हैं। यह घटना मानवीय गरिमा की रक्षा के सांविधानिक प्रावधान पर सवाल खड़े करती है। स्वाभाविक ही राष्ट्रीय मानवता अधिकार आयोग से अपेक्षा की गई कि वह इस घटना का संज्ञान लेकर अपने दायित्व का निर्वाह करे।

जिन लोगों ने गांवों का जीवन देखा और नजदीक से अनुभव किया है, वे जानते होंगे कि वहां भाईचारा और सामूहिकता की संस्कृति जातियों के समूह के रूप में मौजूद रहती है। बाकी जातियां एक-दूसरे से मिलती हैं, मगर अछूत और सछूत, जिसे आज की भाषा में दलित, गैरदलित, अवर्ण और सवर्ण कह सकते हैं, नाम कुछ भी दिए जा सकते हैं। बात भावनाओं, आचार-विचार और रहन-सहन की है।गांव में अछूत और सछूत एक मोहल्ले में नहीं रहते हैं। उनके साथ खानपान भी नहीं होते हैं। अपवादों की बात नहीं हो रही। राहगीर से रास्ता चलते उनका टोला पूछ कर उनकी जाति का पता लगाने की सामान्य रिवायत रही है। मगर शहरों का वातावरण गांव की अपेक्षा एकदम अलग और सुधरा हुआ माना जाता रहा है।
इस बात की चर्चा शहरों और गांव में होती रही है कि जातियां और उनके बीच होने वाले भेद तो गांव में होते हैं, क्योंकि वहां अनपढ़ और सीमित दायरे में बंधे हुए लोग रहते हैं। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है, इसका उन्हें पता नहीं होता है। शहर में सभी जातियों के लोग रहते हैं। पढ़े-लिखे भी होते हैं। उनका वास्ता विस्तृत परिवेश से होता है।
अनेक प्रगतिशील विचारधाराओं के संपर्क में भी रहे होते हैं। यहां जातियों के टोले-मोहल्ले नहीं होते। कम से कम शारीरिक अस्पृश्यता तो नहीं होती है। हालांकि सवर्ण जातियों ने अछूत कही जाने वाली दलित जातियों के घरों में आना-जाना और खानपान के बंधनों को तोड़ा है। मगर फिर भी अस्पृश्यता के भुक्तभोगियों की कमी नहीं है, बहुतों ने इसे देखी और महसूस की है और अब तक देखते रहे हैं।
शहरों में समता का एक रूप माल, होटल रेस्तरांओं में देखा जाता रहा है। कौन किसके बगल में बैठ कर खा रहा है? कौन खाना बना रहा है? कौन परोस रहा है? लोगों को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हां, होटल, रेस्तरां के नाम में अछूत मानी जाने वाली संज्ञाओं को स्वीकार्यता अभी नहीं मिली है, मगर इतना तो इत्मीनान से कहा जा सकता है कि भारत में जाति-भेद की जकड़न आजादी के बाद शहरों में ढीली अवश्य हुई है। डा. आंबेडकर ने भी कहा था कि 'भारत के गांव बहिष्कृत जातियों के लिए कारागार बने हुए हैं।इससे मुक्त होने के लिए उन्हें गांव छोड़ देना चाहिए।' पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में गांव से दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों का महानगरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ा है। इसके अनेक कारण हैं। प्रमुख कारण सवर्ण जमींदारों द्वारा वंचित वर्ग का शोषण रहा है। गांव में बेरोजगारी भी एक कारक है, जिसके कारण वंचित वर्ग गांव छोड़ने को मजबूर होता है। हालांकि वह वर्ग शहरों में पानी और शौच जैसी अति बुनियादी आवश्यकताओं से भी युद्धरत रहता है।अब सवाल है कि हाल ही में घटी खाना पहुंचाने वाले लड़के के साथ घटना के बाद क्या वह कंपनी दलित यानी अस्पृश्य, बहिष्कृत या वंचित कही जाने वाली जातियों के लड़के-लड़कियों को नौकरी पर रखेगी? अगर नहीं, तो यह अकेली कंपनी नहीं होगी जो इन्हें नौकरी से बाहर करेगी। इसी तरह की और कंपनियां इस व्यवहार को नहीं अपनाएंगी, इसकी क्या गारंटी है! दूसरा प्रश्न यह है कि आज एक ग्राहक ने दलित कर्मचारी से खाना लेने से मना कर दिया। कल को कोई सवर्ण कर्मचारी या उसी जैसी कंपनी का कर्मचारी किसी दलित के घर खाना देने या रेस्तरां में बैठने से भी मना कर सकता है। यह संवैधानिक रूप से अनुचित है।
सवाल यह भी है कि शहरों में रहने वाले शिक्षित लोगों के बारे में जो सुधारात्मक, समतापरक और सौहार्द का वातावरण था, क्या वह नहीं बिगड़ रहा है? क्या अब यह मान लिया जाए कि जाति-भेद का संबंध शिक्षित और अशिक्षित, गांव और शहरों से नहीं है? इसका संबध मनुष्य की प्रवृत्ति से है। जो भी हो, यह खाना पहुंचाने वाली घटना राष्ट्र के हित में तो बिल्कुल नहीं है। किसी के साथ किसी के द्वारा किसी तरह का भेदभाव और मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला कृत्य निंदनीय है।

ससुरे-jansatta

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