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- अचम्भा देखा रे भाई...
जनता से रिश्ता : इस विरक्त समय में कबीर पर बात करना और भी विरक्तिकर लग सकता है। कबीर पर अभी तक जितने भी नाटक, फिल्म या धारावाहिक देखने को मिले हैं, उनमें उनकी रचनाएं अनुपस्थित दिखती हैं, जबकि प्रेमचंद या प्रसाद की ओर देखें, तो उनकी रचनाओं पर तो बात दिखती है, उनके व्यक्तित्व पर नहीं। प्रसाद की रचनाओं पर, उनकी कला विधाओं में काम हुआ है, लेकिन उन पर नहीं। दूसरी ओर, कबीर पर तो काम हुआ है, लेकिन उनकी रचनाओं पर नहीं। प्रसाद पर कोई फिल्म नहीं बनी और कबीर की रचनाओं पर कोई फिल्म नहीं बनी।यदि हम हिंदी साहित्य पढ़ते हैं, तो उसमें एक भक्तिकाल भी है। भक्तिकाल में जब कबीर को रखा गया है, तो उनकी रचनाओं पर भी आलोचना, नाटक, फिल्म या धारावाहिक हो सकता था, या हो सकता है। कबीर ने रमैनी में कहा है, जीव रूप यक अन्तरवासा, अन्तर ज्योति कीन्ह परगासा, इच्छा रूप नारि अवतरी, तासु नाम गायत्री धरी। क्या इस विषय को किसी नाटक या फिल्म में दर्शाया गया है? उन्होंने कहा, अनहद अनुभव की करि आसा, देखहु यहा विपरीत तमासा। क्या इस अनहद की कोई बात किसी कलाकृति में पाई जा सकती है?
सोर्स-jansatta