सम्पादकीय

श्रीलंका के कर्ज

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22 Jun 2022 10:00 AM GMT
श्रीलंका के कर्ज
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जनता से रिश्ता : अब श्रीलंका की जनता दो साहूकारों के बीच में फंस गई है। एक तरफ चीन, जो कर्ज चुकाने को उसका हाथ मरोड़ रहा है और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, जो आर्थिक नीतियों को बदलने व अधिकाधिक आर्थिक लाभ व सुविधाएं लेने के लिए सरकार पर दबाव बना रहा है।भारत के पड़ोसी देशों में गहरी उथल-पुथल का दौर चल रहा है। वैसे तो श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश, मालदीव और अफगानिस्तान सभी कम या ज्यादा आंतरिक हलचल के शिकार हैं, लेकिन पिछले दिनों श्रीलंका में राजपक्षे परिवार के खिलाफ जो जन विद्रोह देखने को मिला, वह बेहद आक्रामक था। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को त्रिंकोमाली के नौसैनिक अड्डे में शरण लेने के मजबूर होना पड़ गया था। जिस राजपक्षे खानदान का वर्षों से सत्ता पर एकाधिकार चला आ रहा था, उस कुनबे के सारे लोग अब हटा दिए गए हैं, सिवाय राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के।

श्रीलंका की सत्ता में राजपक्षे के परिवारवाद का नतीजा यह हुआ कि देश में राजनीतिक और आर्थिक फैसले सिर्फ कुछ ही लोगों की मर्जी से होते रहे। संवैधानिक संस्थाओं को नजरअंदाज किया जा रहा था। इसका नतीजा हुआ कि देश गलत और जनविरोधी आर्थिक नीतियों के रास्ते पर बढ़ता गया और उसका परिणाम देश की कंगाली के रूप में सामने आ गया। श्रीलंका के आर्थिक हालात बिगाड़ने में चीन की भूमिका भी कम नहीं रही।पिछले दो दशक में चीन ने अपनी विदेश नीति में एक बड़ा बदलाव करते हुए साहूकारी विदेश नीति अपना ली। जो काम पहले अमेरिका करता आया था, वही चीन करने लगा। गरीब देशों को उनकी आंतरिक योजनाओं के लिए भारी मात्रा में कर्ज देना शुरू कर दिया। इसके अलावा इन छोटे-छोटे देशों में पूंजी निवेश की आड़ में पैर जमाने शुरू कर दिए। एक मोटा अनुमान है कि पिछले दो दशकों में चीन ने एक सौ चौंसठ देशों की लगभग चौरानवे हजार परियोजनाओं के लिए साढ़े आठ सौ अरब डालर कर्ज दिया या पूंजी निवेश किया है। चीन की यह नीति राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्त्वाकांक्षी योजना 'वन बेल्ट वन रोड' के लिए बनाई गई थी। इसके द्वारा चीन अपनी वैश्विक आर्थिक भागीदारी, कूटनीतिक ताकत और समर्थन को भी बढ़ाता रहा है।
भारत के पड़ोसी देशों पर अभी भी चीन का लगभग आठ लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। श्रीलंका पर चीन का पचास हजार करोड़, पाकिस्तान पर तीन लाख करोड़, नेपाल पर 1.35 लाख करोड़, बांग्लादेश पर नब्बे हजार करोड़ और अफगानिस्तान पर लगभग दो लाख करोड़ कर्ज है। श्रीलंका के आर्थिक और राजनीतिक हालात बिगड़ने के पीछे एक कारण यह भी है कि उसके पास कर्ज चुकाने की क्षमता नहीं बची।श्रीलंका ने तो पिछले ही साल विशेष कानून पारित कर चीन की मदद से बनने वाले बंदरगाहों को विशेष छूट दी थी और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) और विदेशी निवेश के नाम पर काफी जमीन चीन को पट्टे पर दे दी थी। हंबनटोटा बंदरगाह छियासठ साल के लिए पट्टे पर दे दिया गया। इन घटनाओं का परिणाम यह निकला कि श्रीलंका में महंगाई बढ़ती गई। सब्जी, फल, दूध आदि इतने महंगे होने लगे कि आम लोगों के लिए इन्हें खरीदना स्वप्न जैसा हो गया। देश का विदेशी मुद्रा भंडार रसातल में चला गया। पेट्रोल और र्इंधन खरीदने के लिए पैसा नहीं रह गया। इससे इनके दाम आसमान छू गए। खर्चों में कटौती के नाम पर श्रीलंका सरकार ने कई देशों में अस्थायी तौर पर दूतावास तक बंद कर दिए, क्योंकि कर्मचारियों को वेतन देने तक को पैसे नहीं बचे थे।
अब श्रीलंका की जनता दो साहूकारों के बीच में फंस गई है। एक तरफ चीन जो कर्ज चुकाने को उसका हाथ मरोड़ रहा है और दूसरी तरफ अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष जो आर्थिक नीतियों को बदलने व अधिकाधिक आर्थिक लाभ व सुविधाएं लेने के लिए सरकार पर दबाव बना रहा है। यह सुविदित है कि आइएमएफ जो कर्ज देता है, वह सामान्य कर्ज नहीं होता, बल्कि वह उन देशों को कर्ज देता है जो अपना देशी विदेशी कर्ज न चुका पाने के कारण दिवालिया हो जाते हैं। मुद्रा कोष का कर्ज मात्र कर्ज या ब्याज नहीं होता, बल्कि वह सारी आर्थिक शक्ति और नियंत्रकों को अपने हाथ में लेने और वैश्वीकरण की आर्थिक शक्तियों के अनुकूल नीतियां बनाने के लिए बाध्य करता है।दरअसल श्रीलंका के आर्थिक दुर्गति के पीछे भी वैश्विक घटनाक्रम हैं। वैसे तो श्रीलंका 1930 से आर्थिक संकटों का शिकार रहा है। सन 1953 में भी श्रीलंका में राष्ट्रव्यापी हड़ताल हुई थी। राजपक्षे की सबसे बड़ी भूल यह रही कि उन्होंने केवल राजनीतिक शक्ति और आधार बढ़ाने के लिए ही रणनीति बनाई, आर्थिक नीतियों को बदलने के बारे में नहीं सोचा। वैसे 1978 से ही श्रीलंका आर्थिक उदारीकरण के खेल का मैदान बन गया था। आइएमएफ और विश्व बैंक के निर्देशों पर श्रीलंका ने तथाकथित आर्थिक सुधार जैसे रुपए का अवमूल्यन, आपात शुल्क में कमी, जन कल्याणकारी योजनाओं में कटौती, खाद्यान्न अनुदान में कटौती और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए खुली छूट देने जैसे कदम उठा लिए थे।
जब श्रीलंका ने विश्व व्यापार के लिए खुली छूट देना शुरू कर दिया था, उस समय श्रीलंका के उच्च तबके ने इन नीतियों का खुले दिल से स्वागत किया और उनका सुख भोगा। वैश्विक आर्थिक शक्तियों ने श्रीलंका को एशियाई क्षेत्र में तरक्की का पर्याय बता कर पेश किया। पूर्व राष्ट्रपति जयवर्धने ने इन आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए और सख्त प्रयोग किए। तब भी श्रीलंका के श्रेष्ठ वर्ग ने यह कह कर कि उदारवाद के लिए सख्त हाथों की आवश्यकता होती है, उनका समर्थन किया था। इससे अमीर तबके को फायदा भी हो रहा था।राष्ट्रपति का पद लोकतांत्रिक राष्ट्रपति के बजाय कार्यपालिका के राष्ट्रपति जैसा बना दिया गया और शक्तियों का संचयीकरण व केंद्रीकरण कर लिया गया। आज श्रीलंका की आम जनता इसी व्यवस्था का विरोध कर रही है। अब लोग स्थिरता के नाम पर दमनात्मक उदारवाद के बजाय प्रगतिशील और नरम नीतियों की मांग कर रहे हैं। वे पुरानी नीतियों से मुक्ति चाहते हैं।
पूंजीवादी अर्थशास्त्री पैसा बनाने के लिए कठोर से कठोरतम नियम लागू कर महंगाई बढ़ा कर देश की कर्ज मुक्ति का हल चाहते हैं, पर अब यह जनता को स्वीकार्य नहीं है। 25 मार्च 2022 को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपनी रपट में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि, बिजली के दाम बढ़ाने, कर्मचारियों की छंटनी आदि जैसे उपाय ही सुझाए हैं। परंतु इन उपायों को लेकर अब जन विश्वास टूट चुका है और इसीलिए जनता सड़कों पर है। इस संकट का हल यही है कि मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक ढांचे को तोड़ा जाए और लोकतंत्रीकरण, विकेंद्रीकरण व स्वदेशी के मार्ग पर लौटा जाए।निष्कर्ष के तौर पर श्रीलंका के घटनाक्रम सबक सिखाने वाले हैं। पहला तो यही कि किसी भी देश को चीन या आइएमएफ और वैश्विक आर्थिक शक्तियों के कर्ज से बचना चाहिए। क्योंकि अंतत: कर्ज स्वतंत्रता के क्षय का कारण बनता है। दूसरा, विदेशी कर्ज किसी न किसी रूप में विदेशी दखल और हस्तक्षेप का कारण बनता है जो कालांतर में देशों में जातीय, धार्मिक, नस्ली या अन्य प्रकार के आंतरिक संघर्षों के बीज बोता है। विदेशी कर्ज देश की आर्थिक व्यवस्था को क्षति पहुंचाता है और वैश्वीकरण के साहूकारों की शर्तों को मानने को लाचार करता है।
एक सबक यह भी कि विदेशी पूंजी निवेश और विदेशी कर्ज, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए अपनी आजादी कायम करने के लिए विकास के लुभावने और विनाशकारी ढांचे को खड़ा करने के बजाय कम पूंजी की छोटी मशीनें और रोजगार पैदा करने वाले विकास को ही आधार बनाना चाहिए। इसके अलावा वैश्विक आर्थिक शक्तियां जो देशों के लोकतंत्रीकरण और संवैधानिक ढांचे को समाप्त कर नौकरशाहीकरण और सैन्यीकरण करती हैं, उससे बचना होगा।

सोर्स-jansatta

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