सम्पादकीय

भारतीय संस्कृति का नाद है योग

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21 Jun 2022 4:58 AM GMT
भारतीय संस्कृति का नाद है योग
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जनता से रिश्ता : योग शब्द संस्कृत की 'युज' धातु से बना है, जिसका अर्थ है, जोड़ना। योग से संबद्ध शास्त्रों में योग को स्वस्थ जीवन यापन की कला एवं विज्ञान से ही अभिहित किया गया है। हमारे यहां पहले-पहल महर्षि पतंजलि ने विभिन्न ध्यान-पारायण अभ्यासों को सुव्यवस्थित कर योग सूत्रों को संहिताबद्ध किया। वेदों की भारतीय संस्कृति में जाएंगे, तो वहां भी योग की परंपरा से साक्षात् होंगे। हिरण्यगर्भ ने सृष्टि के आरंभ में योग का उपदेश दिया। पतंजलि, जैमिनी आदि ऋषि-मुनियों ने बाद में इसे सबके लिए सुलभ कराया। हमारे यहां योग को आरंभ से ही स्वस्थ तन और स्वस्थ मन के अंतर्गत आदर्श जीवनशैली के रूप में स्वीकार किया गया है। महर्षि अरविंद ने समग्र जीवन-दृष्टि हेतु योगाभ्यास को बहुत महत्वपूर्ण बताया है। मैं यह मानता हूं कि योग चिकित्सा नहीं, योग आत्मविकास का सबसे बड़ा माध्यम है। ऐसे दौर में जब भौतिकता की अंधी दौड़ में निरंतर मन भटकता है, मानसिक शांति एवं संतोष के लिए योग सर्वथा उपयोगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर यूनेस्को ने भारत की इस महान परंपरा को विश्व भर के लिए उपयोगी मानते हुए बाकायदा विश्व योग दिवस की घोषणा की। यह हमारी परंपरा और संस्कृति की वैश्विक स्वीकार्यता है।

भारतीय संस्कृति जीवन के उदात्त मूल्यों से जुड़ी है। योग उसी संस्कृति का नाद है। महर्षि अरविंद ने योग को बहुत गहरे से व्याख्यायित किया है। अरविंद की दृष्टि में योग कठिन आसन व प्राणायाम का अभ्यास करना भर नहीं है, बल्कि ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से आत्म समर्पण करना तथा मानसिक शिक्षा द्वारा स्वयं को दैवी स्वरूप में परिणत करना है। योग तन के साथ मन से जुड़ा है। मन यदि स्वस्थ हो, तो तन अपने आप ही स्वस्थता की ओर अग्रसर होता है। अंतर्ज्ञान में व्यक्ति को अपने भीतर के अज्ञान से साक्षात्कार होता है। योग इसमें मदद करता है। मैंने इसे बहुतेरी बार अनुभूत किया है। महर्षि अरविंद ने जीवन में अंतर्ज्ञान को ही सबसे अधिक महत्व दिया है। इसलिए कि इसी से मानवता प्रगति की वर्तमान दशा को पहुंची है। योगिक दिनचर्या से यदि आधुनिक पीढ़ी जुड़ती है, विद्यालयों और महाविद्यालयों में इसे अनिवार्य किया जाता है, तो जीवन से जुड़ी बहुत सारी जटिलताओं को बहुत आसानी से हल किया जा सकता है।
हम सभी जानते हैं कि प्राणशक्ति ही शरीर की सभी क्रियाओं और व्यवस्थाओं को नियंत्रित करती है। प्राणशक्ति का संचय और उसकी सुव्यवस्था योग से ही संभव है। योग प्राकृतिक रूप में प्राणायाम से जुड़ा है। प्राणायाम ही हमारी आंतरिक ऊर्जा को जागृत कर उसे स्वस्थ, संतुलित और सक्रिय करता है। योग के बारे में यह कहा जाता है कि यह चित्त की वृतियों का निरोध करता है। भस्त्रिका, कपाल भाति, त्रिबंध, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी आदि ऐेसे आसान योग हैं, जिन्हें थोड़े प्रयास से हर कोई साध सकता है। इनको यदि नियमित किया जाता है, तो तन ही नहीं, मन भी स्वस्थ रहता है। स्वस्थ, सुखी और कल्याणकारी जीवन के लिए योग से जुड़ी ये क्रियाएं इस रूप में भी उपयोगी हैं कि इनसे सकारात्मक जीवन को दिशा मिलती है।
योग का अर्थ ही है, अपने भीतर की शक्तियों को जानना। उन्हें काम में लेना और अंतर्मन से साक्षात्कार करते हुए भीतर की अपनी अनंत शक्तियों को जागृत करना। स्वामी विवेकानंद ने अपने समय में योगियों को नसीहत दी थी कि उनका आचरण और उन्हें स्वयं ही प्रमाण बनना चाहिए। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि योग को व्यावसायिकता से दूर रखा जाए। इसे चमत्कार से नहीं जोड़ते हुए मानवता के कल्याण के रूप में देखा जाए। यही इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है। भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है, योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् किसी भी काम को निपुणता से करना ही योग है। यह बहुत गहरे अर्थ की बात है। इसे समझ लिया, तो भारतीय संस्कृति में समाहित योग से जुड़ी हमारी जीवन शैली को हम और निकट से समझ सकेंगे। चित्त को जानना और तदनुरूप जीवन को अपने अनुकूल करना, यही तो असली योग है। आइए, योग दिवस की इस शुभ बेला पर हम आदर्श और उदात्त जीवन मूल्यों से जुड़ी हमारी इस महान परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सवे भवन्तु सुखिनः को जन-मन में व्याप्त करें।

सोर्स-amarujala

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