सम्पादकीय

भाषाओं की स्वीकार्यता

Admin2
20 Jun 2022 4:51 PM GMT
भाषाओं की स्वीकार्यता
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जनता से रिश्ता : संयुक्त राष्ट्र के प्रतिष्ठित मंच पर चार अक्तूबर, 1977 को तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हिंदी को गुंजायमान करने की जो कोशिश की थी, उसका मकसद बड़ा था। उस ऐतिहासिक भाषण के जरिये भारत ने अपनी आधिकारिक भाषा हिंदी को वैश्विक पहचान दिलाने की दिशा में कदम बढ़ाया था। हिंदी की वह आवाज अब वैश्विक मान्यता हासिल करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गई है। संयुक्त राष्ट्र ने 12 जून को एक प्रस्ताव पारित करके अपने संचार और संदेशों के प्रसार के लिए हिंदी भाषा को भी जरिया बनाने की घोषणा की है।

करीब अस्सी देशों के सहयोग से पारित इस प्रस्ताव में स्वाहिली, पुर्तगाली, बांग्ला, उर्दू और फारसी को भी हिंदी के समान ही दर्जा दिया गया है। वर्ष 1945 में गठित संयुक्त राष्ट्र महासभा की सिर्फ छह आधिकारिक भाषाएं-अंग्रेजी, अरबी, चीनी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश हैं। उसमें भी संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर ज्यादातर सिर्फ अंग्रेजी और फ्रेंच में ही काम करते हैं। करीब बासठ करोड़ लोगों की प्राथमिक भाषा हिंदी को बेशक वह दर्जा हासिल नहीं हो पाया है, जो संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक छह भाषाओं को हासिल है।
लेकिन जिस हिंदी को भारतीय राजनीति का एक बड़ा हिस्सा किनारे लगाने का हरसंभव उपाय करता रहा हो, उसे अगर संयुक्त राष्ट्र अपने वैश्विक संचार में उपयोग करने की दिशा में आगे बढ़ रहा हो, तो यह मामूली बात नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर 1975 में नागपुर में जब विश्व हिंदी सम्मेलन शुरू हुआ था, तो उसका बड़ा घोषित मकसद हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ाते हुए उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना था।
यह बात और है कि यह सम्मेलन कुछ चुने हुए कथित हिंदी सेवियों के वैश्विक पर्यटन का जरिया ही बना रहा। गंभीर काम इस सम्मेलन के जरिये कम ही हुए। किसी भी भाषा को ताकतवर बनाने में राजनीतिक और आर्थिक शक्तियां ही मददगार हो सकती हैं। अंग्रेजी, स्पेनिश या फ्रेंच की आज अगर वैश्विक स्वीकार्यता है, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि इन भाषाओं में अच्छा साहित्य रचा जा रहा है, या फिर वहां ज्ञान-विज्ञान का काम हो रहा है।
इन भाषाओं की स्वीकार्यता और इनके ताकतवर होने का एक पहलू भले ही यह भी हो, लेकिन यह भी सच है कि अगर मध्यकाल में यूरोप के ताकतवर और समृद्ध देशों ने एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देशों को औपनिवेशिक छाया तले नहीं लिया होता, तो उनकी भाषाएं शायद ही आज की स्थिति में होतीं। हिंदी को वैसा राजनीतिक संरक्षण नहीं मिला। संविधान सभा की बहसों में स्वीकार्यता के बावजूद हिंदी को किनारे रखने की ही कोशिश हुई।
लेकिन हिंदी के अंगने में उदारीकरण बहार बनकर आया। वैश्वीकरण के बाद जब पूरी दुनिया गांव में तब्दील होने लगी, बाजार की पैठ बढ़ने लगी, तो बाजार ने अपने कारोबारी हित के लिए हिंदी की ताकत पहचानी और हिंदी नए रंग में ढलने लगी। उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ने लगी। संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक सातवीं भाषा बनने की राह में संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मुताबिक दो बड़ी बाधाएं हैं और उन्हें पार करना आसान नहीं है। इन दिनों संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देश हैं। हिंदी तभी संयुक्त राष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा बन सकती है, जब इसके दो तिहाई यानी कम से कम 123 देश हिंदी के प्रस्ताव को मंजूरी दें।
अगर यह प्रस्ताव पारित भी हो जाता है, तो हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने पर होने वाले खर्च को सभी सदस्य देशों को आनुपातिक रूप से वहन भी करना मंजूर करना होगा। भारत सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद फिलहाल ऐसा होना दूर की कौड़ी है। जब बड़े लक्ष्य हासिल होने में कठिनाई हो, तो व्यावहारिकता का तकाजा है कि उसकी तरफ जाने वाले छोटे-छोटे लक्ष्यों को हासिल किया जाए। हिंदी इसी तरह आगे बढ़ेगी और अपने मुकाम तक पहुंचेगी। हिंदी प्रेमियों को यह तथ्य स्वीकार करते हुए ही हिंदी को आगे बढ़ाने की कोशिशों का भागीदार बनना चाहिए।
सोर्स-amarujala
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