सम्पादकीय

ऐसी वाणी रोकिए

Admin2
19 Jun 2022 7:55 AM GMT
ऐसी वाणी रोकिए
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : कभी कहा गया था कि हास्य जनतंत्र को बढ़ाता है। आज दुखद स्थिति यह है कि खराब हास्य जनतंत्र की जड़ को हिला रहा है। सोशल मीडिया पर आम आदमी आम समझ के साथ 'विशेषज्ञ' होने की खुशफहमी पालता है, चिंता की बात यह नहीं है। चिंता की बात यह है कि डिग्रीधारी विद्वान भी अकादमिक आदर्शों को भूल कर आम आदमी जैसा व्यवहार करने लगते हैं। जिस देश के राष्ट्रीय कैलेंडर में दशहरे और ईद की सरकारी छुट्टी मिलती है, जहां एक बड़े तबके की शिक्षा का आधार मदरसे और सनातनी विचारधारा के स्कूल हैं वहां टीवी पर धार्मिक प्रतीकों पर अतार्किक और असंसदीय भाषा की बहस नागरिकों का बड़ा नुकसान कर रही है। धर्म और आधुनिकता पर बहस खास परिप्रेक्ष्य में हो सकती है सोशल मीडिया के किसी एक पंक्ति, उकसाऊ पोस्ट या चीखते-चिल्लाते एंकरों, प्रवक्ताओं के जरिए नहीं। वैचारिक व अकादमिक आदर्शों के अकाल पर बेबाक बोल।

'आपस में मिल बैठ कर सहमति से कोई रास्ता निकालिए। लेकिन हर बार नहीं निकल सकता। इसलिए कोर्ट में जाते हैं। इसमें कोर्ट जो निर्णय देगा उसे मानना चाहिए…यह ठीक है कि प्रतीकात्मक हमारी कुछ विशेष श्रद्धा थी तो हमने उस मामले में कुछ ऐसा कहा लेकिन रोज एक मामला निकाल कर लाना, यह भी नहीं करना चाहिए। झगड़ा क्यों बढ़ाना। ज्ञानवापी को लेकर हमारी कुछ श्रद्धा है, परंपरा से चलती आई है। हम कर रहे हैं, ठीक है। परंतु हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?'
(संघ सरसंघचालक मोहन भागवत के नागपुर में दिए भाषण का अंश)
ज्ञानवापी का मामला लंबे समय से अदालत में चल रहा है। यह अदालती लड़ाई भारतीय संविधान और कानून के अनुसार ही आगे बढ़ रही थी। हमारे देश के सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक इतिहास में मंदिरों का अहम अध्याय है। मंदिर सत्ता से लेकर अर्थ के केंद्र थे, इसलिए विदेशी आक्रांताओं के निशाने पर आए। भारतीय कानून में मंदिरों के अधिकार को लेकर वहां स्थापित भगवान भी पक्षकार बनाए गए हैं। एक खास मध्यरात्रि के बाद तारीख बदली और भारत के लिए तारीखी आजादी का कैलेंडर बना।सैकड़ों सालों तक चली आजादी की लड़ाई के बाद आधुनिक भारत में भावनात्मक रूप से उन मंदिरों को भी शामिल कर लिया जाता है जिन पर सबसे पहले कब्जा किया जाता था। दक्षिण भारत के इतिहास में सत्ता के साथ मंदिरों का इतिहास सहोदरी है। बीते कल और आज के निरंतर संवाद को ही इतिहास का दर्जा दिया गया है। इतिहास के कुछ चरण असमंजस पैदा करते हैं, टकराव की राह पर ले जाते हैं। लेकिन वहां भी निरंतरता के नियम को नकारा नहीं जा सकता है। हमें टकराहटों से भी संवाद करना होगा, उसे अप्रासंगिक बता कर अतीत और आज का संबंध-विच्छेद नहीं करवाया जा सकता है। जो देश अपने बीते कल को सहिष्णु और समावेशी तरीके से देखने की कोशिश करेगा वही एक सुंदर आज की बुनियाद रखेगा। बीते कल और आज के संदर्भ में जो टकराव चल रहे हैं वे काबिल इतिहासकारों, वकीलों और जज साहबान के हवाले है। यह उन्हीं के हवाले होना भी चाहिए। इसी आधार पर अयोध्या का भी फैसला आया था और इसी आधार पर ज्ञानवापी का भी मामला चल रहा है।
इतिहास और वर्तमान के नाजुक रिश्ते के बीच आ जाते हैं टीवी चैनल और सोशल मीडिया। न तो वकीलों की दलील खत्म हुई है, न जज ने कोई फैसला सुनाया है। लेकिन टीवी चैनलों पर समांतर अदालत चलने लगी। एक गैरआधिकारिक तस्वीर को लेकर दोनों तरफ के उन प्रवक्ताओं को जनसंचार माध्यमों पर जगह दी जाने लगी जो जितना ज्यादा भड़काऊ बोल सकें। अगर कोई खास पक्ष कम भड़का पाया तो एंकरान के चेहरे से निराशा टपकने लगती है। प्रवक्ताओं को भी लगता है कि अगर वे तार्किकता और बौद्धिकता के साथ अपनी बात रखेंगे तो उन्हें दूसरी बार टीवी स्क्रीन पर जगह ही नहीं मिलेगी। दोनों पक्षों के लोग टीवी पर जहर उगल कर उसके जहरीले दृश्य ट्वीटर पर साझा करते हैं। धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाला वह हिस्सा ही पूरे देश का सच लगने लगता है। कोई हिंदू प्रतीकों का उपहास उड़ाने लगता है तो कोई मुसलिम मान्यताओं का।
चिंताजनक पहलू यह है कि सोशल मीडिया के उन्मादी उपभोक्ताओं में विश्वविद्यालय के वे शिक्षक भी शामिल हो जाते हैं जिनका पहला काम अपने विद्यार्थियों के लिए भाषा की समझ पैदा करना होता है। सोशल मीडिया पर आम आदमी आम समझ के साथ किसी खास 'ट्वीटरी आंधी' में शामिल हो जाता है, चिंता की बात यह नहीं है। चिंता की बात यह है कि अकादमिक जगत के विशेषज्ञ आम लोगों की तरह यानी ईंट का जवाब पत्थर से देने की वकालत करने लगते हैं। गणित से लेकर विज्ञान और इतिहास की एक भाषा होती है।भाषा कैसी 'भाषा' में बोली जाए, जो असंसदीय न हो, यह बताने और समझाने की जिम्मेदारी भी उसी शिक्षक पर है। लेकिन इतिहास के शिक्षक ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे अदालत 'खराब हास्य' के खाते में डाल देती है। जब कोई डिग्रीधारी विद्वान धार्मिक प्रतीक को लेकर असंसदीय हास्य कर खुद को सुकरात और ब्रूनो की श्रेणी का शहीद घोषित करने लगे तो आगे हम क्या उम्मीद करें। आज आप धार्मिक प्रतीक पर खराब हास्य करेंगे तो फिर मानहानि का मामला हारने वाली एंबर हर्ड पर होने वाले स्त्रीविरोधी खराब हास्य का प्रतिरोध किस तरह करेंगे? उन्मादी जातिवादी खराब हास्य को तो कानून के दायरे में आना ही होता है।भी सभ्यता-संस्कृति के विकास में धर्म उसका अहम हिस्सा रहा है। आधुनिक समय में धार्मिक बहसों को खास धार्मिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है, उन पर बात की जा सकती है। आप सोशल मीडिया पर कथित आंधी लाने के लिए जो उन्माद का तूफान खड़ा करते हैं उसकी तुलना धर्म सुधार आंदोलन से न करें तो बेहतर होगा। हमारे पुरखे, संतों व विद्वानों ने अपने समय की चेतना के मुताबिक दर्शन रचा था। तार्किक व्यंग्य और खराब हास्य में अंतर करना अकादमिकों को तो आना चाहिए।
सिर्फ भारत क्या, पूरे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सबको समान शिक्षा व संसाधन नहीं मिलता। कोई मदरसे में पढ़ा है, कोई सनातनी विचारधारा के स्कूल में तो किसी के ज्ञान का साधन मिशनरी संस्थान रहे हैं। आधुनिक संविधान के तहत खड़े किए संस्थानों से जुड़े लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे चीजों को ऐतिहासिक क्रमानुसार, सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भों में समझाएं न कि उग्र व क्रूर बयानों से एक बड़े वर्ग को प्रतिक्रियावादी बनाकर अलग-थलग खड़ा कर दें।यह सिर्फ ज्ञानवापी से जुड़ा मसला नहीं है। महात्मा गांधी से जुड़े खास दिन पर उन्हें स्त्री विरोधी करार दिया जाता है तो गौतम बुद्ध से जुड़े दिवस पर उन्हें नारीवाद के तराजू पर तौला जाने लगता है। यशोधरा में सिमोन द बोउवार और वर्जीनिया वुल्फ खोजी जाने लगती है। इस तरह की बेतुकी तुलना वही कर सकते हैं जो इतिहास को वैज्ञानिक नजरिए से देखने से नकारते हैं। महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन ने जिस तरह से स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं से लेकर परिवार की हर एक इकाई को जोड़ा था वह वैश्विक इतिहास में बेनजीर है।
पर सामाजिक व सांस्कृतिक इतिहास के कालक्रम को नकार कर गांधी में उनके समय के पार की नारीवादी चेतना खोजी जाने लगती है। दुर्गा से लेकर शिव और अब पैगंबर पर आधुनिक मानकों से मजाक बना कर सामुदायिक सौहार्द बिगाड़ दिया जाता है। पौराणिक कथाओं में न्यूटन, आइंस्टीन से लेकर बाल-विवाह कानून लाने वाले राजनीतिक दलों के प्रवक्ता से लेकर डिग्रीधारी विद्वान इतिहास के सबसे हास्यास्पद काल में हैं।सोशल मीडिया पर वह आम आदमी भी है जिसने इतिहास और समाजशास्त्र की शास्त्रीय पुस्तकों का अध्ययन नहीं किया है। वह बचपन में स्कूल से लेकर दफ्तर जाने तक कैलेंडर में दशहरे और ईद का 'सरकारी अवकाश' पाता है और अपने उत्सवों को मनाता है। दशहरे और ईद के अवकाश को जब राष्ट्र के कैलेंडर में सरकारी छुट्टी की तर्ज पर लिया जाता है तो फिर आप इन धार्मिक प्रतीकों पर असंसदीय बयानबाजी कर आम नागरिकों के बीच क्या संदेश देना चाहते हैं? यही कि वह अपने वजूद को लेकर अति भावुक हो जाए और उन हिंदू-मुसलिम प्रवक्ताओं के साथ खड़ा हो जाए जो इनका इस्तेमाल सिर्फ विभाजनकारी राजनीति के लिए करेंगे।दुनिया का इतिहास धर्म के टकराव का भी इतिहास रहा है। दुनिया का बड़ा हिस्सा अभी भी इस टकराव में टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। अपने दशहरे और ईद के साथ भारत का जनतंत्र अभी तक दुनिया के नक्शे पर अपनी भव्यता बरकरार रखे हुए है। इसकी भव्यता में वो जनता है जो पूरी दुनिया को सिखाती आई है कि राम और पैगंबर एक साथ कैसे रह सकते हैं।
टीवी पर धार्मिक प्रतीकों को लेकर बकवास करते इन प्रवक्ताओं के जहरीले बयान का खमियाजा विदेश में बैठे हमारे राजदूत, इंजीनियर, डाक्टर और कामगारों को भुगतना पड़ता है। अब वक्त आ गया है कि राजनीतिक बहस के नाम पर हिंदू-मुसलिम करने वाले दोनों पक्षों के बकवासकर्ताओं को टीवी चैनलों से लेकर अखबारी सुर्खियों तक से दूर किया जाए। संघ और भाजपा ने जो आधिकारिक पहल की है वह पैमाना सभी तरह के दल और संस्थान अपनाएं। उन्मादी प्रवक्ताओं की उन्नति के दौर का अंत जितनी जल्दी हो हमारे लोकतंत्र के लिए उतना अच्छा होगा।
सोर्स-jansatta
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