सम्पादकीय

प्रकृति और संस्कृति

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19 Jun 2022 3:59 AM GMT
प्रकृति और संस्कृति
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : एक और पर्यावरण दिवस बीता। इन प्रतीकात्मक दिवसों पर भारतीयता की मूल प्रकृति को दर्शाने वाली लोकभाषा और संस्कृति से बृहत्तर समाज की दूरी को लेकर मन में कुछ सवाल उभरते हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने लिखा है, 'किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझ कर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं।हम 'विकसित' हो गए हैं। भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी। एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा, जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है। ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज की मिट्टी, पानी, हवा में अंकुरित होते हैं, पलते-बढ़ते हैं और यदि उनमें से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैं, उसी मिट्टी में खाद बनाती हैं। इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है।'

भाषा या बोली मात्र बोलने का जरिया नहीं होते, उनमें एक संस्कृति छिपी होती है। भाषा के बदलने से एक पूरा समाज प्रभावित होता है। क्योंकि यह हमारे दिमाग को बदलता है। औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था और उसके बाद गढ़े गए विकास ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण के साथ ही हमारी सामाजिकता को भी नष्ट किया है। इस व्यवस्था ने जहर की भांति धीरे-धीरे पूरे समाज और संस्कृति को बदल कर रख दिया है। इसमें एक बड़ी आबादी को हमारी संस्कृति का सब कुछ पुराना, पिछड़ा और दकियानूसी लगता है।इस सोच ने पर्यावरण और प्रकृति का बहुत बड़ा नुकसान किया है। अंधाधुंध विकास ने हमारे पूरे प्राकृतिक चक्र को बिगाड़ कर रख दिया है। जल, जंगल और जमीन के मूल निवासियों को हमने अंग्रेजों से मिली उधार की सीख के आधार पर पिछड़ा और आदिवासी मान लिया। जबकि भारत इन्हीं पिछड़े और संपन्न इलाकों में मिले प्राकृतिक संसाधनों से एक समृद्ध देश माना गया।भारतीय संस्कृति में शुरू से ही प्रकृति और पर्यावरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। हमारी संस्कृति में पर्यावरण के विविध स्वरूपों को 'देवताओं' के समकक्ष मान कर उनकी पूजा-अर्चना करने की परंपरा रही है। 'माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:' अर्थात पृथ्वी हमारी माता है और हम सभी देशवासी इस धरा की संतान हैं।
इसी प्रकार पर्यावरण के अनेक अन्य घटकों, जैसे पीपल, तुलसी, वट आदि को पवित्र मान कर पूजा जाता है। अग्नि, जल और वायु को भी देवता मान कर उन्हें पूजने की परंपरा रही है। समुद्र, नदी को भी पूज्य माना गया है। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु और सरस्वती आदि नदियों को पवित्र मान कर पूजा जाता है। हमारे यहां तो पशु और पक्षियों का भी आदर करना सिखाया गया है।इन सब के बावजूद औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था तथा अपनी भाषा और संस्कृति को निम्नतर देखने की प्रवृत्ति ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण का बहुत बड़ा अहित किया है। हमने अंधाधुंध विकास को ही सब कुछ मान लिया, जिसका परिणाम हमारे सामने है।
तमाम गांवों के निवासी आज भी पर्यावरण की सरकारी परिभाषा को नहीं समझते हैं, पर उन्हें प्रकृति से प्रेम करना आता है, क्योंकि यह उनकी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है। जबकि सरकारी शब्दावली में एक हद तक पर्यावरण को बस विकास से जोड़ कर देखने की परंपरा रही। सरकार ने पर्यावरण रक्षा के नाम पर तमाम योजनाएं चलाई, पर उनमें देसीपन का अभाव रहा।अपनी भाषा, संस्कृति और ज्ञान से कट कर हमने अपने जल के स्रोतों- कुएं, तालाब को मृतपाय बना डाला। देश के गांवों में स्थित वनों को विकास और आबादी के कारण कृषि क्षेत्र में बदल दिया गया। हमारे पुरखे प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व को समझते थे। आज भी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में 'ओरण' (अरण्य से बना शब्द) की व्यवस्था है। इस प्रकार के ओरण गांवों के वन, मंदिर देवी के नाम पर छोड़े जाते हैं।इन ओरणों की रक्षा का दायित्व ग्रामीणों के ऊपर होता है और इनको अकाल के समय में ही खोला जाता है। अनुपम मिश्र कहते हैं- 'इन वनों की रखवाली इनकी श्रद्धा और विश्वास करता रहा है।' हजार-बारह सौ वर्ष पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे। पर इस प्रकार की समृद्ध परंपरा से सरकारें अपरिचित हैं। क्योंकि हमारी सरकारों का एक बड़ा वर्ग अपनी भाषा और संस्कृति से कटा हुआ है। हमने अपनी ग्रामीण व्यवस्था और परंपरा को पिछड़ा मान लिया। यही कारण है कि हमने अपनी कृषि की प्रत्येक समृद्ध परंपरा को बिना सोचे-समझे पिछड़ा मान लिया।
परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा स्थापित अधिकांश योजनाएं समाज की मूलभूत आवश्यकताओं से कटी हुई हैं, क्योंकि इन्हें तैयार करने वाले शिक्षा-व्यवस्था के कारण ग्रामीण परंपराओं से अपरिचित रहे। जन से कटे रहने के कारण अधिकांश योजनाएं विफल सिद्ध हुर्इं। इसका मूल कारण रहा इन योजनाओं को तैयार करने वाले अधिकांश नीति-निर्माता किंडरगार्टेन शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े या व्यवस्था इनकी पोषक रही। पर्यावरण आधारित सरकार की अधिकांश योजनाओं के नाम देखें तो ऐसा प्रतीत होगा, इन योजनाओं को तैयार तो भारत में किया गया है, पर इनके पीछे सोच और क्रियान्वयन पश्चिम आधारित रहा।इसलिए ये अधिकांश समाज से कटी रहीं। हमने नदियों के जल को पानी या विद्युत स्रोत मान कर उनका दोहन किया। नदियों को प्रदूषण का केंद्र बना डाला, वह भी तब जब इस देश में राजा भगीरथ की कथा जनश्रुतियों में मौजूद है। पर यह केवल श्रुतियों तक सीमित रह गई, जिसका नुकसान हम सब देख रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व को समझें।
इस महत्त्व के प्रसार में हमारी लोक भाषाओं का बहुत बड़ा योगदान है। हम अपनी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। इस देश की मूल प्रकृति की रक्षा के लिए जनभाषाओं को अपनाया जाना बेहद आवश्यक है। इससे जहां हम अपने समाज, संस्कृति, परंपरा की रक्षा कर सकते हैं वहीं देश के लोकतांत्रिक पर्यावरण को भी मजबूती दे सकते हैं। लोकभाषाएं इस देश की जीवतंता के लिए आवश्यक हैं, क्योंकि वे गुण, भाव से समावेशी, सर्वग्राही हैं, जो प्रकृति और भारतीयता का मूल तत्त्व है।समाज के सशक्तीकरण के लिए, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार में हिंदी और देशी भाषाओं को दृढ़तापूर्वक अपनाने का संकल्प लेना जरूरी है, ताकि लोक के माध्यम से पर्यावरण के प्रति सुषुप्त पड़ चुकी चेतना को जागृत किया जा सके। जो भारतीय भावधारा पृथ्वी को मातृभूमि और अपने आप को उसका पुत्र समझने की चिंतन को व्याख्यायित करती है। वह अगर भौतिकवाद की अंधी दौड़ में सब कुछ भूल-सी गई है, तो यह समाज के लिए चिंतनीय के साथ ही भावी पीढ़ी के लिए भी एक भयावह संकेत है। जबकि हमारी भावधारा तो एक छोटे से तृण के प्रति भी उदार रही है।दूब को पूजने वाला समाज क्यों एक वट वृक्ष के सूख जाने, कट जाने या नया रोपित करने के प्रति उदार नहीं होता। पर्यावरण के प्रति मूल चिंता के लिए भारतीय भावधारा की उसी चेतना के प्रति जागृत होने, करने की आवश्यकता है। 'माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:' पर्यावरण रक्षा का मूल संकल्प हो, तो सब सार्थक और समृद्ध हो जाए।
सोर्स-jansatta


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