- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- कहां से लाएंगे दूसरी...
x
जनता से रिश्ता वेबडेस्क : वर्ष 1973 से प्रतिवर्ष 5 जून को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तत्त्वाधान में मनाया जाने वाला विश्व पर्यावरण दिवस सबसे बड़ा पर्व बन गया है—संभवतः विश्व के विभिन्न देशों में मनाए जाने वाले सांस्कृतिक पर्वों से भी बड़ा। वर्ष 2022 का विश्व पर्यावरण दिवस इस दृष्टिकोण से विशिष्ट है कि इस दिन "स्टॉकहॉम सम्मलेन" की स्वर्ण जयंती है। वर्ष 1961 में रेचल कार्सन की बहुचर्चित पुस्तक 'साइलेंट स्प्रिंग' से प्रभावित होकर 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा "मानव पर्यावरण" पर स्वीडन की राजधानी स्टॉकहॉम में सम्मलेन आयोजित किया गया, जिसे बहुधा 'स्टॉकहॉम कांफ्रेंस' कहते हैं। इस बहुचर्चित पर्यावरण कांफ्रेंस ने ही विश्व पर्यावरण दिवस की नींव रखी जिसे कॉन्फ्रेंस के अगले वर्ष, 1973 से, प्रति वर्ष मनाया जाता है।
इस वर्ष के पर्यावरण दिवस का केंद्रीय नारा है 'केवल एक ही पृथ्वी'। स्टॉकहॉम सम्मलेन के 50 वर्ष बाद संकट विकराल होते होते पर्यावरण संकट, जलवायु संकट से होते हुए, पृथ्वी ग्रह का ही संकट बन गया है। ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क के अनुसार, आर्थिक विकास के दबाव को तेज करने के साथ-साथ राष्ट्रों के बीच आर्थिक विकास प्रतिस्पर्धा ने दुनिया को एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहां उसे नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों की अपनी वर्तमान मांगों को पूरा करने के लिए लिए 1.7 प्रथ्वियों की आवश्यकता होगी। लेकिन कहाँ से लाएंगे दूसरी पृथ्वी?
हमारी एक ही पृथ्वी, और वह भी आग का गोला बनती जा रही है। दहकती जलवायु से पृथ्वी बचे तो बचे कैसे? सृष्टि का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया है, वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 420 पीपीएम तक पहुँच गई है। कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता इसी तरह बढ़ती गई, तो सदी के अंत तक सृष्टि का ताप जीवन को एक अनर्थ के मोड़ पर ले आएगा। सार्वभौमिक गर्माहट प्रक्रियाओं पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से विश्व की सरकारों के बीच अनेक संधियां हो चुकी हैं। सृष्टि का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया है, वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 420 पीपीएम तक पहुँच गई है।
कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता इसी तरह बढ़ती गई, तो सदी के अंत तक सृष्टि का ताप जीवन को एक अनर्थ के मोड़ पर ले आएगा। सार्वभौमिक गर्माहट प्रक्रियाओं पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से विश्व की सरकारों के बीच अनेक संधियां हो चुकी हैं।धरती की शनैः शनैः डगमगाती स्थिति के पीछे मानव का ही हाथ है। आज हम देख रहे हैं कि जलवायु में हो रहे विषम परिवर्तनों के कारण हिमानियाँ द्रुतगति से पिघल रही हैं, सागरों का जलस्तर बढ़ रहा है, आजीविकाएं पैदा करने वाले संसाधन टूटने के कगार पर हैं, जीवों की अनेक प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं और असंख्य विलुप्त होने के कगार पर हैं।नैसर्गिक विकास, अर्थात नेचुरल इवोलुशन, हमारी पृथ्वी का एक विशिष्ठ गुण है। विकास (इवोलुशन) वास्तव में ब्रह्माण्ड का नियम है। समय के रथ पर सवार होकर, सारे ब्रह्माण्ड को अपने आलिंगन में लेकर विकास शनैः शनैः एक लयबद्धता के साथ परिवर्तन के पदचिन्ह छोड़ता चला जाता है।
विकास की इसी यात्रा के सबसे सुनहले कालखंड में मानव का प्रादुर्भाव हुआ—एक सबसे सक्षम और बौद्धिक क्षमताओं की पराकाष्ठा पर पहुंचे प्राणी का विकास। हम मानव प्राणियों का अस्तित्त्व विकास की सबसे अनूठी सृजनशीलता का प्रमाण है। अपने अस्तित्व के मोल को आत्मसात करते हुए हम धरती को अपनी माँ मानते हैं।हम धन्य हैं कि हम आकाश गंगाओं की विशिष्टतम और चमत्कारिक ऊर्जाओं से बने हैं। अपने अस्तित्त्व के इस पहलू को गहराई से समझते हुए हमें चरम उल्लास एवं आनंद की अनुभूति को धारण करना चाहिए और धरती माँ के साथ ऐसा व्यव्हार करना चाहिए जैसा हम अपनी माँ के साथ करते हैं।हमें आज एक सत्य को स्वीकार करना चाहिए और अपने अस्तित्त्व को बचाने के लिए ऐसा करना भी पड़ेगा। वह सत्य है अपनी धरती के प्रति हमारे व्यवहार का सत्य, अर्थात हमारी जीवन शैली।धरती पर आज जो निराशाजनक परिदृश्य उभरा है, जिससे धरती के एक जिन्दा ग्रह बने रहने पर ही एक प्रश्नचिन्ह उभरता जा रहा है, उसके मूल में वही प्राणी है जिसे धरती माँ ने इतना गढ़-गढ़ कर पैदा किया है, जिसे ब्रह्माण्ड के विकास ने अपनी चेतना की सारी शक्तियां प्रदान कर दी हैं, और जो अपनी चेतना और प्रौद्योगिकी प्रबलताओं के बल पर सर्वव्यापी हो गया है और सभी जीवधारियों का स्वामी बन बैठा है।
जी हाँ, हमारी अपनी ही प्रजाति वाला प्राणी। धरती पर जीवन बुनने और और जीवन की अक्षुण्णता सुनिश्चित करने वाली प्रक्रियाएं हमारे द्वारा कुप्रभावित हो रहीं हैं। जिस प्रक्रिया से सौर ऊर्जा जीव-ऊर्जा में रूपांतरित होती है, जिस प्रक्रिया से जीव-ऊर्जा का प्रवाह समस्त जीवों में होता है, जिस प्रक्रिया से अस्तित्व का मोल है, जिस प्रक्रिया से मानव में अद्भुत संचेतना का विकास होता है, और जिस प्रक्रिया से हमारी धरती माँ जीवनविविधता एवं अनन्य सौंदर्य से सराबोर है, वह प्रक्रिया है प्रकाश संश्लेषण।
प्रकाश संश्लेषण को चरम पर ले जाने में ही धरती पर जीवन का चरमोत्कर्ष निहित है। यदि हम प्रकाश संश्लेषण को चरम पर ले जाएं तो हम पृथ्वी और मानव के सभी संकटों का समाधान करने में सक्षम होंगे, जिसके लिए अनिवार्य है पृथ्वी की अधिकांश सतह पर सघन हरियाली, उर्वरा मिट्टी, स्वच्छ हवा-पानी और अपनी पृथ्वी के प्रति हमारा संरक्षण-भरा अनुराग।
लेखक जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में एमेरिटस प्रोफेसर हैं।
सोर्स-jansatta
Admin2
Next Story