सम्पादकीय

भ्रष्टाचार के दुष्प्रभाव

Admin2
18 Jun 2022 9:56 AM GMT
भ्रष्टाचार के दुष्प्रभाव
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : बंटवारे की यह अग्नि दो देशों के विभाजन तक ही सीमित नहीं रही। दोनों देशों के विभाजन के पश्चात वहां कई समस्याओं का जन्म हुआ। देश में आंतरिक स्तर पर भी बंटवारे जैसी स्थितियां कई बार आईं। जिनके मूल में थी, सत्ताधारी वर्ग व नौकरशाही व्यवस्था की भ्रष्ट नीति। देश में भ्रष्टाचार इतने व्यापक पैमाने पर फैल चुका था, जिसके भरण-पोषण के लिए देश व राज्यों के विकास को भी दाव पर लगा दिया गया। जिन राज्यों में भ्रष्टाचार हद से ज्यादा बढ़ गया, उस राज्य का विकास अवरुद्ध हो गया। परिणामस्वरूप उनमें से कुछ राज्यों में अलगाववाद की धारणा को बल मिला। कुछ राज्यों को तो अंतत: हो हिस्सों में बांटना ही पड़ा। यह भ्रष्टाचार के ही दुष्प्रभाव थे जिसके फलस्वरूप राज्यों का विभाजन, असमान विकास, राजनीतिक उपेक्षा, अन्याय, और अविश्वास के कारण नक्सलवाद जैसी समस्याओं का विकास होता चला गया। देश का कोई भू-भाग यदि इस बात की शिकायत करता है कि समृद्ध प्राकृतिक विरासत, अपार खनिज संपदा होने के बावजूद वहां विकास नही हुआ है, सुविधाओं का अभाव है या फिर लोग दाने-दाने को मोहताज हैं तो इसके लिए कोई और नहीं बल्कि हमारी भ्रष्ट व्यवस्था की भ्रष्ट नीतियां ही दोषी हैं।आजादी के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, हमारे देश का बौद्धिक वर्ग भी दो गुटों में बंटता चला गया। एक वर्ग में वह लोग थे जो खुद को प्रगतिशील मानते थे तथा दूसरे वह जो प्रगतिशील नहीं है। कुछ लोगों ने सांस्कृतिक और धर्मवादियों को भी गैर प्रगतिशील ही माना है। दोनों प्रकार के लेखक और बुद्धिजीवी आपस में अनेक विषयों पर वाद विवाद करते हैं और देश की हर समस्या पर उनका नजरिया अपनी विचारधारा के अनुसार तय होता है। देश में बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकटों पर पर ढेर सारी कहानियां लिखी जाती हैं पर उनके पैदा करने वाले कारणों पर कोई नहीं लिखता। अर्थशास्त्र के अंतर्गत भारत की मुख्य समस्याओं में 'धन का असमान वितरण और कुप्रबंध भी पढ़ाया जाता है। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिसमें स्वयं की चिंतन क्षमता तो किसी मेें विकसित हो ही नहीं सकती और उसमें शिक्षित बुद्धिजीवी अपने कल्पित मसीहाओं की राह पर चलते हुए नारे लगाते और 'वादÓगढ़ते जाते हैं।

सामूहिक प्रहार का अभाव
साहित्य,नाटक और अन्य जनसंचार माध्यमों में भुखमरी और बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार का व्यापक पैमाने पर चित्रण हुआ है। इन विषयों पर लिखने वाले लोग राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े-बड़े पुरुस्कार भी प्राप्त कर चुके हैं। भ्रष्टाचारी के विरुद्ध एक अघोषित आंदोलन साहित्य व हमारे जनसंचार माध्यमों में दिखता है। परन्तु इस समस्या के समाधान के लिए किसी सामूहिक प्रयास का सर्वथा अभाव दिखता है। बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकट कोई समस्या नहीं बल्कि इन दोनों समस्याओं से उपजी बीमारियां हैं। जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं वह कुप्रबंध का ही पर्यायवाची शब्द है। भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने की बात बुद्धिजीवी वर्ग के साहित्य में तो मिलती है, पर उसका समाधान निकालने में वह भी असमर्थ ही रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सतही बहसें होती हैं पर देश की समस्याओं के मूल में कोई झांककर नहीं देखता।
अलगाव की स्थिति
हमारे देश के राजनीतिज्ञ भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं, जिसे जब मौका मिला विकास के नाम पर उसने अपना स्वार्थ पूरा कर लिया। उनके इन्हीं स्वार्थों को पोषित करने के कारण कई राज्य काफी पिछड़ गए, परिणामस्वरूप वहां अलगाववाद की भावना बल पकड़ती गई। देश में नेताओं की निष्ठा लगातर दम तोड़ रही ह, और वे अधिकाधिक भ्रष्टïाचार में संलिप्त हो रहे हैं और इसका दुष्प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर और वहां के विकास पर पड़ता है। विकास के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रदत्त धनराशि और उसके खर्च की जिम्मेदारी लेने के प्रति कोई गंभीर नहीं हो पाता। अगर यह कहा जाए कि पूर्वोत्तर में छोटे राज्यों के गठन का फार्मूला सर्वथा विफल हो गया है तो कदाचित गलत नहीं होगा। राजग सरकार में गठित उत्तरांचल झारखंड और छत्तीसगढ़ के सत्ता संघर्ष भी कुछ कम विस्मयकारी और त्रासद नहीं है। यहां विकास कम और नेताओं के हित अधिक सधते हैं। अगर ऐसा ही कुछ तेलंगाना की भी किस्मत में बदा है तो क्या कहा जा सकता है।
लालच व स्वार्थ प्रमुख कारण
कोई भी व्यक्ति जन्म से भ्रष्ट नहीं होता। समाज में उसकी आर्थिक स्थिति तथा उसके जीवन की कई परिस्थितियां मनुष्य को भ्रष्ट बनने पर मजबूर कर देती हैं। असुविधाओं व अभावों के बीच जीवनयापन करने वाला व्यक्ति जल्दी भ्रष्ट हो जाता है, हमारे समाज में ऐसी धारणा प्रचलित है। परन्तु यदि हम इस समस्या की गहराई में जाएं तो पाएंगे कि आजकल संपन्न व उच्च स्तर के लोग इस बीमारी से अभावग्रस्त लोगों की तुलना में कहीं ज्यादा ग्रस्त हैं। लोगों में बढ़ती लालच व स्वार्थ की प्रवृत्ति भ्रष्टïाचार के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। निजी क्षेत्रों के विस्तार के साथ तो इस समस्या का रूप और भी विकराल होता जा रहा है। आज बाजार नकली व मिलावटी सामानों से भरा पड़ा है। इस प्रकार के कार्य भी सामाजिक भ्रष्टाचार का ही एक हिस्सा है। भ्रष्टाचार केविरोध में समाज में कोई वातावरण नहीं बन पा रहा है। जिसका प्रमुख कारण समृद्ध व शक्तिसंपन्न वर्ग का आपसी स्वार्थ है। वे चाहते ही नहीं हैं कि समाज से इस महामारी का खात्मा हो।
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