सम्पादकीय

प्रताड़ना झेलने को विवश आधी आबादी

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18 Jun 2022 3:53 AM GMT
प्रताड़ना झेलने को विवश आधी आबादी
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : रूढ़िवादी मानसिकता ने बहुत कुछ बदल कर भी कुछ न बदलने जैसे हालात बना रखे हैं। यही वजह है कि घरेलू हिंसा का दंश भी समाज के हर वर्ग में देखने को मिलता है। सवाल है कि घर के हर सदस्य को भावनात्मक सहारा देने वाली महिलाएं क्यों अपने ही घर के भीतर हिंसक व्यवहार झेलने को विवश हैं?दुनिया का हर इंसान सम्मान और सुरक्षा की उम्मीद रखता है। पर अफसोस कि कई भारतीय महिलाओं को अपने घर में भी सम्मान का माहौल नहीं मिलता। देश की आबादी का आधा हिस्सा होने के बावजूद औरतें अपने ही घर में अपना मानवीय हक हासिल नहीं कर पाई हैं। घरेलू हिंसा जैसी अमानवीय स्थितियां अब भी उनके हिस्से आ रही हैं। शिक्षित और आत्मनिर्भर होती स्त्रियों के आंकड़े भी उन्हें मानवीय हक नहीं दिला पा रहे। इनमें सबसे ज्यादा तकलीफदेह है, छोटी-छोटी बातों पर उनके साथ होने वाली हिंसा। यह प्रताड़ना मानसिक और मनोवैज्ञानिक पीड़ा का सबब तो है ही, महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी तकलीफों का भी अहम कारण है।

हाल ही में जारी भारत के अट्ठाईस राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों के 707 जिलों के करीब साढ़े छह लाख घरों के सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट इसी बात की पुष्टि करती है। गौरतलब है कि स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की पांचवी रिपोर्ट में सामने आया है कि देश में आज भी लगभग एक तिहाई महिलाएं शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार हैं।इस दुर्व्यवहार का दुखद पक्ष यह भी है कि शारीरिक और यौन हिंसा झेलने वाली महिलाओं की इतनी बड़ी आबादी में से सिर्फ चौदह प्रतिशत महिलाएं मदद मांगने के लिए आगे आई हैं। जबकि पारिवारिक सुदृढ़ता के लिए दुनिया भर में मान पाने वाले हमारे देश में 18-49 साल की तीस प्रतिशत महिलाएं पंद्रह साल से कम की उम्र से ही शारीरिक हिंसा का शिकार हुई हैं।घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा आंकड़े विवाहत महिलाओं से जुड़े हैं, जबकि दांपत्य जीवन दो पीढ़ियों को जोड़ने वाले सेतु के समान होता है। बुजुर्गों की जिम्मेदारी से लेकर बच्चों के पालन-पोषण के दायित्व तक, पारिवारिक संसार से जुड़ा कितना कुछ दो इंसानों के साझे जीवन के साथ चलता है। ऐसे में घरेलू हिंसा की पीड़ा और प्रताड़ना झेलने वाली औरतों के लिए अपने ही घर में असुरक्षा और अपमान की स्थितियां बन जाती हैं।
सहयोग और संबल देने वाले रिश्ते ही उनका जीना दुश्वार कर देते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा के अस्सी फीसद से ज्यादा मामलों में अपराधी पति ही होता है। ऐसे में सवाल है कि यह कैसा साझा जीवन है, जिसमें सुरक्षा और सम्मान की जगह अपमान और प्रताड़ना का दंश भरा हो। इससे बढ़ कर तकलीफ देह क्या होगा कि हमारे यहां सार्वजनिक जीवन में ही नहीं, व्यक्तिगत मामलों में भी स्त्रियां पीड़ादायी परिस्थितियों में जी रही हैं।राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट के अनुसार बत्तीस प्रतिशत महिलाओं ने अपने जीवन में घरेलू हिंसा झेली है। चौदह फीसद महिलाएं भावनात्मक हिंसा का शिकार बनी हैं। छह प्रतिशत महिलाएं यौन हिंसा का शिकार भी बनी हैं। पत्नी पर हाथ उठाना कई पुरुष अपना अधिकार समझते हैं। कई बार तो इस हद तक मारपीट की जाती है कि महिला की जान चली जाती है। गौरतलब है कि स्वास्थ्य मंत्रालय का यह पांचवा सर्वेक्षण 2019 से 2021 के बीच किया गया है। यानी वैश्विक विपदा के दौर में भी औरतों के साथ दुर्व्यवहार जारी रहा।
यहां तक कि जीवन के सबसे ज्यादा अनिश्चितता और पारिवारिक साथ की सबसे ज्यादा जरूरत वाले कोरोना काल में भी महिला आयोग को घरेलू हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी को लेकर समाज और सरकार को चेताना पड़ा। आल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमन्स एसोसिएशन समेत आठ महिला अधिकार संगठनों ने भी कोरोना संक्रमण की घर तक सिमटी जिंदगी के दौर में महिलाओं के सामने आ रही ऐसी मुश्किलों पर गहरी चिंता जताई थी।
तकरीबन हर अध्ययन और व्यावहारिक रूप से दिखने वाली हर परिस्थिति, घरेलू हिंसा से जुड़े भयावह आंकड़े और कड़वी हकीकत को सामने लाते रहे हैं। कभी दहेज के नाम पर, तो कभी बिटिया को जन्म देने के उलाहने रूप में। मारपीट कर उनकी मान-मर्यादा पर आघात करना हमारी पारिवारिक व्यवस्था में आम बात है। अफसोस कि बरसों के साथ में भी यह दुर्व्यवहार जड़ें जमाए हुए है। यह सर्वेक्षण बताता है कि बढ़ती उम्र में भी घरेलू हिंसा के मामले देखने में आ रहे हैं। लंबा वैवाहिक जीवन बिता चुके दंपत्तियों में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामले दोगुने हो गए हैं।

आंकड़े बताते हैं कि 18-19 साल के विवाहितों में ऐसे मामले 16.4 प्रतिशत हैं, तो 40-49 की उम्र वालों में यह आंकड़ा 32.1 पाया गया। यह बेहद चिंतनीय है कि घरेलू हिंसा के बढ़ते आंकड़ों के बावजूद मदद लेने के लिए आगे आने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है। जबकि बीते कुछ बरसों में महिला शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के आंकड़े तेजी से बढ़े हैं। स्त्री अधिकारों को लेकर सजगता लाने वाले अभियानों को गति मिली है। महिलाओं के सशक्तीकरण संबंधी जन-जागरूकता अभियानों की पहुंच बढ़ी है।
ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि अपनों से मिले अपमानजनक और पीड़ादायी बर्ताव को झेलते रहने की वजह सामाजिक-पारिवारिक दबाव और रूढ़ सोच ही है। सर्वेक्षण में भी खुलासा हुआ है कि ऐसे दुखद हालात में भी सहायता लेने वाली महिलाओं की संख्या कम है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की तीसरी रिपोर्ट से अब तक बहुत बड़ी गिरावट दर्ज हुई है। 2005-06 में यह दर चौबीस प्रतिशत थी, जो 2015-2017 में 14 फीसद रह गई। 2019-21 के हालिया सर्वेक्षण में इस आंकड़े में कोई बदलाव नहीं हुआ है। सहायता लेने वाली महिलाओं का आंकड़ा मात्र चौदह फीसद रहा, जबकि घरेलू हिंसा की शिकार औरतों के आंकड़ों में इजाफा देखने को मिल रहा है।
दरअसल, यह हिंसक व्यवहार लैंगिक भेदभाव की लीक पर चलने की सोच का ही परिणाम है। इसके चलते घर के कामकाज हों या आर्थिक जिम्मेदारियां उठाने का मामला, अपनों की देखभाल के दायित्व निर्वहन की सूची में खुद को दोयम दर्जे पर रखने वाली महिलाओं को अपने ही घर में यह अपमानजनक व्यवहार झेलना पड़ता है। असहयोगी परिवेश के कारण कई महिलाएं इस दुर्व्यवहार को अपनी नियति मान कर चुपचाप सहती रहती हैं। कानूनी रूप से यह दुर्व्यवहार अपराध होने के बावजूद यह दंश झेल रही औरतें मदद नहीं मांग पातीं।
कई बार पारिवारिक सम्मान का हवाला देकर भी उन्हें चुप करा दिया जाता है। ऐसे परिवार भी कम नहीं, जहां महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को व्यवस्थागत समर्थन दिया जाता है। नतीजतन, इस त्रासद व्यवहार को झेलते हुए अकेली पड़ जाने वाली महिलाओं के मन की घुटन उन्हें शारीरिक बीमारियों और मनोवैज्ञानिक परेशानियों के घेरे में भी ले आती है।दरअसल, रूढ़िवादी मानसिकता ने बहुत कुछ बदल कर भी कुछ न बदलने जैसे हालात बना रखे हैं। यही वजह है कि घरेलू हिंसा का दंश भी समाज के हर वर्ग में देखने को मिलता है। सवाल है कि घर के हर सदस्य को भावनात्मक सहारा देने वाली महिलाएं क्यों अपने ही घर के भीतर हिंसक व्यवहार झेलने को विवश हैं? महिलाओं का एक बड़ा वर्ग जीवन साथी के इस दुर्व्यवहार को सही मानता है।
निस्संदेह इस स्वीकार्यता के पीछे इस लड़ाई में उनका अकेले पड़ जाना और सामाजिक दबाव से जीवन मुहाल हो जाना ही है। क्योंकि इस कटुतापूर्ण और हिंसक व्यवहार को घरवालों का भी समर्थन मिलता है, जबकि पीड़ित महिलाओं पर सवाल उठाए जाते हैं। ऐसे में समाज को सोचना होगा कि अपनी ही चौखट के भीतर महिलाओं के हिस्से यह वेदना क्यों आ रही है? क्यों ऐसे हालात बने हुए हैं कि औरतें इस पीड़ा के बारे में कोई संवाद, कोई शिकायत तक नहीं कर पातीं।

सोर्स-jansatta

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