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राजनीतिक पार्टियों ने खुद को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाए जाने के केंद्रीय सूचना आयोग के कदम पर जैसी क्षुब्ध प्रतिक्रिया जताई है, वह एक और सुबूत है कि पारदर्शिता की दुहाई देने वाले ये दल खुद ईमानदारी और पारदर्शिता के किसी पैमाने में बंधने के इच्छुक नहीं हैं।इस फैसले के बाद सत्ताधारी कांग्रेस ने ही सीआईसी को निशाने पर नहीं लिया है, बल्कि अब तक अपनी शुचिता के लिए पहचानी जाने वाली माकपा का बिफरना तो और भी आश्चर्यजनक है। राजनीतिक दलों को शायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि सिविल सोसाइटी के दबाव पर सूचना के अधिकार का जो कानून अस्तित्व में आया, एक दिन खुद वे भी उसकी जद में आ जाएंगे।सवाल यह नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का अधिकार सीआईसी के पास है या नहीं, सच्चाई यह है कि राजनीतिक पार्टियों को पारदर्शी बनाने की कवायद को अब और नहीं रोका जा सकता। इस दिशा में चुनाव आयोग की पिछली एकाधिक कोशिशों को एकजुट होकर राजनीतिक दलों ने जिस तरह विफल कर दिया, वह रहस्य नहीं है।
सोर्स-amarujala