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निरंकार सिंह: अमेरिका में रह कर आइंस्टीन ने परमाणु बम के विकास पर बहुत काम किया। लेकिन जब इन परमाणु बमों को हिरोशिमा और नागासाकी पर प्रयोग में लाया गया, तो वे रो पड़े थे। उन्हें ऐसे विनाश के बारे में सपने में भी नहीं सोचा था। इस परमाणु हमले के बाद आइंस्टीन जीवन भर परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के बारे में शिक्षा देते रहे।
जब से मनुष्य ने धरती पर अपने आस-पास की प्रकृति को जानने और समझने की कोशिश शुरू की, उस समय से आज तक कई प्रकार की खोजें और आविष्कार हुए। हर खोज ने मनुष्य को प्रगति पथ पर एक-एक कदम आगे बढ़ाया है। पिछली कई शताब्दियों में गैलीलियो, यूक्लिड और न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों ने पृथ्वी, आकाश और गुरुत्वाकर्षण आदि के बारे में जिस अनुसंधान का आरंभ और संवर्धन किया तथा भौतिक विज्ञान में जिस जड़तावाद को जन्म दिया, उसके मूलाधार गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत में अल्बर्ट आइंस्टीन के चार व्याख्यानों ने भारी उथल-पुथल मचा दी थी। आइंस्टीन ने ये व्याख्यान सन 1921 के प्रारंभ में अमेरिका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में दिए थे। सौ साल पहले उन्होंने गुरुत्वीय तरंगों की भविष्यवाणी भी कर दी थी, जिसकी पुष्टि कुछ साल पहले ही हुई है।
अभी तक मनुष्य ने जितना ज्ञान हासिल किया है, उसकी प्रगति में किस आविष्कार का हाथ सबसे अधिक था, यह तो विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि जिन खोज और आविष्कारों से ज्ञान की प्रगति में क्रांति आई, उनमें 'सापेक्षवाद का सिद्धांत' का स्थान प्रमुख है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में भौतिकी के प्राय: निरभ्र गगन में दो कृष्ण मेघ दिखाई देने लगे थे और उन्हीं में से एक से सापेक्षता के सिद्धांत का जन्म हुआ। नए आविष्कारों के कारण चिर-प्रतिष्ठित सिद्धांतों की त्रुटियां विशेष रूप से दिखाई देने लगी थीं और जिन मौलिक धारणाओं पर उस समय तक अधंविश्वास किया जाता था, उनका भी विश्लेषण करने की आवश्यकता दिखाई देने लगी थी।
यह सत्य है कि विज्ञान के विकास में निश्चित समझे जाने वाले सिद्धांतों में सुधार (अथवा आवश्यकता होने पर त्याग भी) अनेक बार होता ही रहता है। किंतु जैसा आघात भौतिकी तथा दर्शन शास्त्र पर न्यूटन के सिद्धांतों के प्रतिपादन से हुआ था, उससे भी प्रबलतर आघात आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने किया। इसलिए उनकी गिनती दुनिया के सबसे महानतम वैज्ञानिकों में होती है। दुनिया उनके जन्मदिन को 'जीनियस डे' के रूप में मनाती है।
अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म 14 मार्च 1879 को जर्मनी के उल्म नाम के छोटे-से शहर में हुआ। बचपन से ही आइंस्टीन की विज्ञान में गहरी रुचि थी। आइंस्टीन गणित में अत्यधिक प्रतिभाशाली थे, लेकिन दूसरे विषयों में नहीं। जब वे पंद्रह साल के साथ के थे, तभी उनका परिवार इटली के मिलान शहर में जाकर बस गया था। वहां से उन्हें पढ़ाई के लिए स्विटजरलैंड भेज दिया गया। स्विटजरलैंड के ज्यूरिख विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए वे एक परीक्षा में बैठे, लेकिन असफलता हाथ लगी। एक साल तक और तैयारी करने के बाद वे फिर उसी परीक्षा में बैठे, तब उन्हें दाखिला मिला। स्विटजरलैंड में ही गणित और भौतिक विज्ञान में उनकी प्रतिभा का वास्तविक विकास हुआ। सन 1900 में उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और स्विटजरलैंड की नागरिकता ले ली। इसके बाद उन्होंने अध्यापन शुरू किया, लेकिन कोई भी स्थान उनके विचारों के अनुकूल न होने के कारण उन्होंने स्विटजरलैंड के पेटेंट आफिस में नौकरी कर ली।
उन्हीं दिनों यूगोस्लाविया की मिलेवा मैरिश नाम की एक छात्रा से उनका प्रेम हो गया और सन् 1903 में उन्होंने उससे विवाह कर लिया था। सन 1904 की बात है। उन दिनों आइंस्टीन अपने छोटे बेटे को प्राग में घुमाने ले जाते थे। उनके साथ एक डायरी भी होती थी। चाहे जहां गाड़ी रोक कर वे इसमें गणित और भौतिकी की समस्याएं हल करने लगते। बाद में इस डायरी को देखने पर पता चला कि ब्रह्मांड को समझने के लिए उन्होंने इसमें बहुत-सी समस्याओं का समाधान किया था। सन 1905 में जब आइंस्टीन छब्बीस वर्ष के थे, तब उन्हें ज्यूरिख विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि मिली। इसी वर्ष भौतिक विज्ञान की एक प्रसिद्ध पत्रिका में उनके अनुसंधानों से संबंधित पांच लेख छपे थे। इन्हीं लेखों से आइंस्टीन की ख्याति विश्व भर में फैल गई थी।
इनमें से एक शोध पत्र में उन्होंने यह बताया था कि जब पोटेशियम, टंगस्टन आदि जैसी धातुओं पर प्रकाश पड़ता है तो इन धातुओं से इलेक्ट्रान निकलने लगते हैं। इन इलेक्ट्रानों को फोटो इलेक्ट्रान कहते हैं। इस प्रभाव को फोटो विद्युतप्रभाव कहते हैं। प्रकाश के फोटो विद्युत प्रभाव की खोज के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया था। दूसरे शोध पत्र में उन्होंने ब्राउनियन गति का अनुसंधान किया था। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी तरल पदार्थ में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करते कणों की गति तरल पदार्थ के अणुओं से लगातार टकराने के कारण होती है। तीसरे लेख में उन्होंने विश्वविख्यात सापेक्षिकता का सिद्धांत पेश किया था।
इस लेख में उन्होंने सिद्ध करके दिखाया था कि द्रव्यमान, दूरी और समय जैसी भौतिक राशियां (जिन्हें स्थिर माना जाता है) भी वेग के साथ बदलती रहती हैं। इस सिद्धांत ने समस्त विश्व में तहलका मचा दिया। इसी लेख में उन्होंने सिद्ध कर दिया कि ईथर जैसे माध्यम का कोई अस्तित्व नहीं है। यह सिद्धांत इतना जटिल था कि इसे उस समय विश्व के कुछ गिने-चुने वैज्ञानिक ही समझ पाए थे।
चौथे लेख में उन्होंने द्रव्यमान और ऊर्जा की समतुल्यता के विषय में क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार यदि एक पौंड पदार्थ को ऊर्जा में परिवर्तित किया जाए, तो उससे सत्तर लाख टन डायनामाइट को जलाने से पैदा हुई ऊर्जा के बराबर ऊर्जा पैदा होगी। इसी सिद्धांत के आधार पर परमाणु बम बनाया गया था, जिसने सन 1945 के द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों को क्षण भर में खंडहर बना दिया। पांचवे लेख में उन्होंने सिद्ध किया था कि प्रकाश कणों के रूप में चलता है। इन कणों को फोटोन कहते हैं। सन 1916 में उन्होंने सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत पर एक शोध पत्र प्रकाशित किया जिसमें ब्रह्मांड की गुरुत्वाकर्षण संबंधी गुत्थियों पर प्रकाश डाला गया था।
सन 1933 तक जर्मनी पर हिटलर का तानाशाही राज कायम हो चुका था। यहूदी समुदाय के लोगों को लेकर बेहद नफरत भर दी गई थी। यहूदियों को यातना शिविरों में ठूंसा जा रहा था। इस पर आइंस्टीन हिटलर के विरोध में खड़े हो गए थे। हिटलर की नाराजगी के कारण उन्हें आखिरकार जर्मनी छोड़ने का फैसला कर लिया। उन्हीं दिनों आइंस्टीन एक भाषण देने के लिए अमेरिका गए थे। तभी उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें एक पत्र लिख कर आगाह किया कि वे अब जर्मनी लौट कर न आएं, क्योंकि उनके खिलाफ बड़ा अभियोग लगाया जा चुका था। इसके बाद आइंस्टीन अमेरिका में ही रुक गए थे और प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गए थे।
अमेरिका में रह कर आइंस्टीन ने परमाणु बम के विकास पर बहुत काम किया। जब इन परमाणु बमों को हिरोशिमा और नागासाकी पर प्रयोग में लाया गया, तो इसे देख आइंस्टीन रो पड़े थे। उन्हें ऐसे विनाश के बारे में सपने में भी नहीं सोचा था। इस परमाणु हमले के बाद आइंस्टीन जीवन भर परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के बारे में शिक्षा देते रहे। आइंस्टीन केवल एक वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि शांति के महान पुजारी भी थे। उन्होंने अपने एक संदेश में मानव जाति से युद्ध समाप्त करने की प्रार्थना की थी। उनको आदर देने के लिए एक नए तत्व का नाम आइंस्टीनियम रखा गया है। आज उनकी मृत्यु को पैंसठ वर्ष से भी अधिक हो गए हैं, लेकिन उनका मस्तिष्क आज भी प्रिंसटन अस्पताल में सुरक्षित रखा हुआ है। इसका अध्ययन कई अस्पतालों में किया जा चुका है और अभी भी वैज्ञानिक आइंस्टीन की विद्वता के रहस्य को समझने में लगे हैं।