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कॉलेज-स्कूल में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। सभी संस्थानों को अपना ड्रेस कोड रखने का हक भी है।
माई च्वाइस का मसला एक आधुनिक स्त्री का मसला है, जहां वह अपने निर्णय खुद ले सकती है। आपको दीपिका पादुकोण की फिल्म याद है न। लेकिन आज भी हमारे देश में किसी भी जाति–धर्म की लड़कियां कितने प्रतिशत हैं, जो अपने निर्णय खुद ले पाती हैं। अक्सर वे अपने परिवार और समाज की सत्ता के बनाए कानूनों का ही पालन करती नजर आती हैं। बरसों पहले शाहबानो का एक इंटरव्यू पढ़ा था। जहां उनसे पूछा गया कि उच्चतम न्यायालय ने जब उनके पक्ष में निर्णय दिया, तो उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि न्यायालय ने उनके पक्ष में निर्णय देकर गलत किया। तब शाहबानो ने कहा था कि अगर वह ऐसा न करतीं, तो खून की
नदियां बह जातीं। तब कांग्रेस की सरकार थी। कट्टरपंथियों के दबाव में शाहबानो की कोई मदद नहीं की गई थी। दशकों पहले शाहबानो के मामले में प्रगतिशील और कट्टरपंथियों का विभाजन साफ नजर आता था।
राजीव गांधी सरकार की इसलिए काफी आलोचना भी की जाती थी कि उन्होंने शाहबानो और मुसलमान औरतों को गुजारा भत्ता दिए जाने के मामले में महिलाओं का कोई साथ नहीं दिया। उन्हें अकेला छोड़ दिया। शाहबानो और दिवराला में सती हुई रूपकंवर का समय लगभग एक-सा है। इस दौरान अनेक स्त्रीवादियों का बहुत से कट्टरपंथियों से खूब साबका पड़ा था। लेकिन तब स्त्रीवाद औरतों को हर तरह के पिछड़ेपन और कट्टरपन से मुक्ति दिलाना चाहता था। वह अपने विचारों से जरा-सा भी डिगता नहीं था।
लेकिन कर्नाटक में जब से बुर्का और हिजाब की बहस चली है, समाज में विभाजन दिख रहा है। हिजाब को औरतों की आजादी से जोड़ा जा रहा है। लोकतंत्र में अपने-अपने धार्मिक अधिकारों की बात की जा रही है। बहुत से स्त्री-पुरुष, बुद्धिजीवी, हिजाब की वकालत कर रहे हैं। दुनिया भर में बहुत-सी मुसलमान औरतें हिजाब और बुर्कों से मुक्ति के रास्ते तलाश रही हैं। मगर अपने यहां अनेक वे औरतें, जिन्होंने हर तरह की स्वतंत्रता को खूब भोगा है, वे इसके पक्ष में लट्ठ लेकर खड़ी हैं। अरसे से तो बताया गया कि हिजाब, बुर्का, घूंघट, चादर आदि स्त्रियों को पुरुषों के मुकाबले दोयम दर्जे की नागरिकता देते हैं। पुरुषों के बनाए ये नियम औरतों को अपने से नीचे मानने के कारण ही उसे तरह-तरह के बंधनों में कैद करते हैं। मगर अब जैसे इन विचारों को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। कहा जा रहा है कि यह उस स्त्री का अपना मामला है कि वह हिजाब, बुर्का पहनती है या नहीं। उस पर अपना विचार दूसरे कैसे लाद सकते हैं। इसी के जवाब में दूसरे कह रहे हैं कि इस तरह तो घूंघट भी औरत की अपनी च्वाइस का मामला ही हुआ।
अभी कुछ साल पहले हरियाणा की एक सरकारी पत्रिका में घूंघट के बारे में छपा था कि वह स्त्री के सम्मान के लिए होता है। जैसा कि हिजाब के बारे में कहा जा रहा है। उस समय तमाम स्त्री वादियों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। लेकिन आज मलाला यूसुफजई और राणा अयूब जैसी सैकड़ों महिलाएं इनके पक्ष में बोल रही हैं। यदि बुर्के के लिए यह तर्क ठीक है कि यह औरत को ढककर रखता है, जिससे कि उस पर पुरुषों की गंदी नजर न पड़े, तो भाई घूंघट को भी सही मान लो। फिर उसकी क्यों आलोचना करते हो। जबकि गांधी जी तक ने पर्दे के खिलाफ आंदोलन चलाया था। आज गांधी जी को भी खत्म कर दो। इससे कुछ पीछे लौटें, तो सती होने को भी औरत की मर्जी का मामला ही बताया गया था। 1987 में रूपकंवर जब सती हुई थी, भाजपा की एक बड़ी नेत्री ने कहा था कि सती होना स्त्री का अपना अधिकार है। तो उनकी बात मान लेनी चाहिए थी। सती के मामले में भी उस समय की कांग्रेस सरकार तेइस दिन बाद जगी थी।
राजनीतिक स्पर्धाएं किसी भी अच्छे विचार को गड्ढे़ में गिरातीं हैं और रही–सही कसर समाज के वे तमाम लोग पूरी कर देते हैं, जो अपनी सुविधा से समाज की दुर्दशा पर कभी आंसू बहाते हैं तो कभी खामोशी ओढ़ लेते हैं। लौटा दो औरतों को पिछली किसी सदी में। बंद कर दो सारे स्कूल, कॉलेज, दफ्तर। फिर से कैद कर दो, घर की चहारदीवारी में। यह होना ही था। एक तरफ अपने देश में 'मैरिटल रेप' पर बहस चल रही है। उसके खिलाफ कानून बनाने की बातें की जा रही हैं, तो दूसरी तरफ बहुत-सी उच्च शिक्षित औरतें हिजाब का समर्थन कर रही हैं। उनके साथ मिलकर बहुत से पुरुष भी कह रहे हैं कि उस लड़की से पूछो कि वह क्या चाहती है। लेकिन क्या अब कोई भी कानून बनाने के लिए हर एक से पूछना पड़ेगा, तब तो कभी कोई सुधार ही नहीं हो सकेगा। जब राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योति बा फुले, सावित्री बाई फुले आदि ने स्त्रियों की शिक्षा, बाल विवाह का विरोध, सती प्रथा के खिलाफ कानून आदि के लिए आंदोलन चलाया था, तब भी उन्हें ऐसे कुतर्कों से दो-चार होना पड़ा था। इन सब बातों को संस्कृति का हिस्सा बताया गया था। मगर वे डिगे नहीं थे। आज यह देखना दिलचस्प है कि अपने को प्रगतिशील कहने वाले बहुत से लोग हिजाब के पक्ष में खड़े हैं।
एक कट्टरता दूसरी कट्टरता को कैसे पालती-पोसती है, यह दिख ही रहा है। शबाना आजमी ने एक बार कहा था कि सरकारें उदार मुसलमानों के मुकाबले कट्टरपंथियों की ज्यादा सुनती हैं। तस्लीमा नसरीन तो ऐसी बातें न जाने कितनी बार कह चुकी हैं। एक टीवी बहस में एक मशहूर मुसलमान महिला एंकर ने सच कहा कि अगर यही लड़की हिजाब के खिलाफ आंदोलन चला रही होती, तो भी क्या उसे इतना ही समर्थन मिलता। एक तरफ जय श्रीराम और दूसरी तरफ हिजाब के लिए समर्थन, दोनों की ही किसी कॉलेज-स्कूल में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। सभी संस्थानों को अपना ड्रेस कोड रखने का हक भी है।
सोर्स: अमर उजाला
Neha Dani
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