भीषण नरसंहार की, जब दो समुदायों के बीच लड़ाई में चली गई लाखों लोगों की जान
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। इतिहास के पन्नों में ऐसे कई नरसंहार की कहानियों के बारे में पढ़ने को मिलता है, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। कुछ इसी तरह का एक नरसंहार अफ्रीकी देश रवांडा में हुआ था। कहा जाता है कि महज 100 दिनों तक चले इस भीषण नरसंहार में एक-दो नहीं, बल्कि करीब आठ लाख लोग मारे गए थे। अगर इस घटना को इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार कहें, तो बिल्कुल गलत नहीं होगा। दरअसल, साल 1994 में रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति सिप्रेन की हत्या के कारण इस नरसंहार की शुरुआत हुई थी। प्लेन क्रैश होने के कारण इन दोनों राष्ट्रपति की मौत हो गई थी।
हालांकि, अभी तक ये साबित नहीं हो पाया कि हवाई जहाज को क्रैश कराने में किसका हाथ था। लेकिन कुछ लोग इसके लिए रवांडा के हूतू चरमपंथियों को जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि कुछ का मानना है कि रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ) ने ये काम किया था। क्योंकि दोनों ही राष्ट्रपति हूतू समुदाय से संबंध रखते थे, इसलिए हूतू चरमपंथियों ने इस हत्या के लिए रवांडा पैट्रिएक फ्रंट को जिम्मेदार ठहराया। वहीं आरपीएफ का आरोप था कि जहाज को हूतू चरमपंथियों ने ही उड़ाया था, ताकि उन्हें नरसंहार का एक बहाना मिल सके।
असल में यह नरसंहार तुत्सी और हुतू समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। इतिहासकारों के मुताबिक, 7 अप्रैल 1994 से लेकर अगले 100 दिनों तक चलने वाले इस संघर्ष में हूतू समुदाय के लोगों ने तुत्सी समुदाय से आने वाले अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों और यहां तक कि अपनी पत्नियों को ही मारना शुरू कर दिया।
हूतू समुदाय के लोगों ने तुत्सी समुदाय से संबंध रखने वाली अपनी पत्नियों को सिर्फ इसलिए मार डाला, क्योंकि अगर वो ऐसा नहीं करते तो उन्हें ही मार दिया जाता। इतना ही नहीं, तुत्सी समुदाय के लोगों को मारा तो गया ही, साथ ही इस समुदाय से संबंध रखने वाली महिलाओं को सेक्स स्लेव बनाकर भी रखा गया।
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि इस नरसंहार में सिर्फ तुत्सी समुदाय के ही लोगों की हत्या हुई। हूतू समुदाय के भी हजारों लोग इसमें मारे गए। कुछ मानवाधिकार संस्थाओं के मुताबिक, रवांडा की सत्ता हथियाने के बाद रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ) के लड़ाकों ने हूतू समुदाय के हजारों लोगों की हत्या की। बता दें कि इस नरसंहार से बचने के लिए रवांडा के लाखों लोगों ने भागकर दूसरे देशों में शरण ले ली थी।
रवांडा नरसंहार के लगभग सात साल बाद यानी 2002 में एक अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत का गठन हुआ था, ताकि हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दी सके। हालांकि, वहां हत्यारों को सजा नहीं मिल सकी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तंजानिया में एक इंटरनेशनल क्रिमिलन ट्रिब्यूनल बनाया, जहां कई लोगों को नरसंहार के लिए दोषी ठहराया गया और उन्हें सजा सुनाई गई। इसके अलावा रवांडा में भी सामाजिक अदालतें बनाई गई थीं, ताकि नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाया जा सके। कहते हैं कि मुकदमा चलाने से पहले ही करीब 10 हजार लोगों की मौत जेलों में ही हो गई थी।
जातीय संघर्ष में हुए इस नरसंहार के बाद से ही रवांडा में जनजातीयता के बारे में बोलना गैरकानूनी बना दिया गया है। सरकार की मानें तो ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि लोगों के बीच नफरत न फैले और रवांडा को एक और ऐसी घटनाओं का सामना न करना पड़े।