काशी के महाश्मशान में रंगभरी एकादशी के दिन खेली गई होली बाकी होली से बहुत अलग होती है क्योंकि यहां रंगों से नहीं बल्कि चिता की राख से होली खेली जाती है। मोक्षदायिनी काशी नगरी के महाशमशान हरिश्चंद्र घाट पर चौबीसों घंटे चिताएं जलती रहती हैं। कहा जाता है कि यहां कभी चिता की आग ठंडी नहीं होती है। पूरे साल यहां गम में डूबे लोग अपने प्रियजनों को अंतिम विदाई देने आते हैं लेकिन साल में एकमात्र होली का दिन ऐसा होता है जब यहां खुशियां बिखरती हैं। रंगभरी एकादशी के दिन इस महाश्मशान घाट पर चिता की राख से होली खेली जाती है। इस साल भी 14 मार्च को वाराणसी में रंगभरी एकादशी के दिन श्मशान घाट पर रंगों के साथ चिता की भस्म से होली खेली गई। इस दौरान डमरू, घंटे, घड़ियाल और मृदंग, साउंड सिस्टम से निकलता संगीत जोरों पर रहा। कहते हैं कि चिता की राख से होली खेलने की यह परंपरा करीब 350 साल पुरानी है।
इसके पीछे कहानी है कि भगवान विश्वनाथ विवाह के बाद मां पार्वती का गौना कराकर काशी पहुंचे थे। तब उन्होंने अपने गणों के साथ होली खेली थी. लेकिन वे श्मशान पर बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच और अघोरियों के साथ होली नहीं खेल पाए थे। तब उन्होंने रंगभरी एकादशी के दिन उनके साथ चिता की भस्म से होली खेली थी। आज भी यहां यह परंपरा जारी है और इसकी शुरुआत हरिश्चंद्र घाट पर महाश्मशान नाथ की आरती से होती है। इसका आयोजन यहां के डोम राजा का परिवार करता है।