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अमेरिका ने लिखी, राजनीतिक आंदोलन से शुरू हुआ तालिबान, जिसके जन्म की कहानी

Shiddhant Shriwas
8 July 2021 6:20 AM GMT
अमेरिका ने लिखी, राजनीतिक आंदोलन से शुरू हुआ तालिबान, जिसके जन्म की कहानी
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तालिबान फिर से अपना दायरा फैलाने में लग गया है। ऐसे में ये जानना बहुत जरूरी हो गया है कि तालिबान है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अफगानिस्तान से अमेरिका की सेना धीरे-धीरे वापस जा रही है। इस कारण तालिबान की गूंज फिर से सुनाई देने लगी है। तालिबान फिर से अपना दायरा फैलाने में लग गया है। ऐसे में ये जानना बहुत जरूरी हो गया है कि तालिबान है क्या? इसका जन्म कैसे हुआ था और आने वाले समय में इस घटनाक्रम का भारत पर क्या असर पड़ने वाला है?

माना ये जा रहा है कि सितंबर तक अमेरिका अपनी पूरी सेना वापस बुला लेगा। ऐसे में तालिबान का वर्चस्व फिर से अफगानिस्तान मे बढ़ सकता है। आशंका ये भी जताई जा रही है कि 22-24 साल पहले जो हालात थे, वह दोबारा जिंदा हो सकते हैं। इससे वैश्विक राजनीति पर बड़ा प्रभाव पड़ने वाला है। इस घटना की वजह से मध्य एशिया में हलचल देखने को मिलेगी। इसके अलावा हमारे भारत देश को भी करोड़ों रुपयों का घाटा सहन करना पड़ सकता है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से तालिबान के पूरे इतिहास के बारे में बताएंगे।

तालिबान का जन्म

1950 से 1990 के दशक के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध चल रहा था। दोनों ही देश वैचारिक और भौगोलिक स्तर पर अपना विस्तार करने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे। इसी कड़ी में 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। अफगानिस्तान में सोवियत का प्रभुत्व, अमेरिका से बर्दाश्त नहीं हुआ। इसे देखते हुए उसने ओसामा बिन लादेन का सहारा लिया और उसे अफगानिस्तान में भेजा, जहां उसने स्थानीय लोगों को सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया।

इसी दौरान अफगान मुजाहिदीन का गठन हुआ, जिसका एकमात्र लक्ष्य सोवियत सेना को अपने देश से बाहर खदेड़ना था। अमेरिका और पाकिस्तान भारी मात्रा में महंगे से महंगे सैन्य उपकरण और आर्थिक सहयोग इन मुजाहिदीनों को पहुंचा रहे थे, जिसके बल पर अफगान मुजाहिदीन सोवियत सेना से लड़ रही थी। इस युद्ध में मुजाहिदीनों ने सोवियत सेना को भारी क्षति पहुंचाई। 10 साल के अंदर की इस लड़ाई में सोवियत सेना ने अपने 15,000 सैनिकों को खो दिया। इस कारण सोवियत संघ को मजबूरन अफगानिस्तान को छोड़ना पड़ा।

इसके बाद अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में अफगान मुजाहिदीन ने अफगानिस्तान की राजधानी को घेर लिया। सैयद मोहम्मद नजीबुल्लाह के नेतृत्व में अफगानिस्तान में सरकार की स्थापना हुई। हालांकि इस दौरान देश में अस्थिरता का माहौल बना रहा। 1994 में अफगान मुजाहिदीन का ही एक अंग तालिबान देश में उभरा।

1994 में अफगानिस्तान के भीतर तालिबान एक शक्तिशाली आंदोलन बन गया था। इस दौरान पाकिस्तान ने तालिबान से जुड़े लोगों को भारी मात्रा में आर्थिक सहायता, सैन्य सहायता और हथियार मुहैया कराया, ताकि तालिबान के जरिए सेंट्रल एशिया से पाकिस्तान का व्यापार मार्ग खुलवाया जा सके। पाकिस्तान की इस सहायता के चलते तालिबान काफी मजबूत हो गया और देखते ही देखते उसने 1996 में राजधानी काबुल को अपने कब्जे में ले लिया। धीरे-धीरे उसने बाकी हिस्सों को भी अपने गिरफ्त में लेने की शुरुआत की। इस बीच अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच कई सारे युद्ध हुए। इस दौरान पाकिस्तान ने तालिबान के साथ विभिन्न स्तरों पर अपने रिश्ते मजबूत कर लिए थे। उसने कई तालिबानी नेताओं को अपने यहां पर ट्रेनिंग दी। इसी बीच 1996 के आसपास ओसामा बिन लादेन दोबारा अफगानिस्तान में आता है, जहां उसका तालिबान के नेताओं ने पुरजोर ढंग से स्वागत किया। ओसामा बिन लादेन के मंसूबे कुछ और थे, जिसे पूरा करने के लिए उसने तालिबान के भीतर आतंकवादियों को भर्ती करने की शुरुआत की। इसे देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए प्रस्ताव पारित किया, जिसका कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला।

कुछ समय बाद फिलिस्तीन के मसलों को लेकर 2001 में ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हवाई हमला कर दिया, जिसमें कई बेकसूर लोगों की जानें गईं। इस घटना के बाद अमेरिका हरकत में आया है और उसने तालिबान से ओसामा बिन लादेन को सौंपने के लिए कहा। अमेरिका के इस प्रस्ताव को तालिबान ने अस्वीकार कर दिया। इसे देखते हुए अमेरिका भड़क गया और उसने तालिबान के कई स्ट्रैटेजिक बेस पर खतरनाक हवाई हमले किए। हमले में तालिबान को काफी क्षति पहुंचती है, जिसके चलते काबुल से उसका नियंत्रण पूरी तरह टूट जाता है। इस हमले के कारण तालिबान के कई नेताओं को भागकर पाकिस्तान में शरण लेनी पड़ी थी। इसके बाद लंबे समय तक अफगानिस्तान में अस्थिरता का माहौल बना रहा, जिसे देखते हुए अमेरिका अपनी सेना वहां पर तैनात करता है।

तालिबान का दोबारा शक्ति में आने से भारत पर उसका प्रभाव

अब जबकि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हट रही है, तो ऐसे में भारत को कई सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। इस घटनाक्रम के चलते हमें चाबहार बंदरगाह प्रोजेक्ट में करोड़ों रुपयों का घाटा सहन करना पड़ेगा। इसके अलावा पाकिस्तान, तालिबान की सहायता से कश्मीर में अव्यवस्था फैलाने की पूरी कोशिश करेगा, जिस कारण हमें रक्षा क्षेत्र में अतिरिक्त मात्रा में पैसों को खर्च करना होगा।

कयास ये भी जताए जा रहें हैं कि अफगानिस्तान में अब रूस की आर्मी की एंट्री हो सकती है। इसी संदर्भ में हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर रूस के दौरे पर गए हैं। अगर स्थिति ठीक नहीं हुई तो जल्द ही नॉर्दन एलायंस की सेना अफगानिस्तान में दिख सकती है, जिसका हिस्सा भारत भी है। तालिबान का जिस तेजी से विस्तार हो रहा है, ऐसे में वहां पर सेना को तैनात करना काफी जरूरी हो गया है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो आस पास के कई और देश भी उसकी जद में आ जाएंगे।

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