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दिल्ली: “वकालत को एक नेक पेशा” माने जाने का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को इस बात पर आश्चर्य जताया कि 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार मामले और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या के दोषियों में से एक कैसे वकालत कर सकता है और उसकी दोषसिद्धि के बावजूद उसे सजा में छूट मिली. मामला अदालत के संज्ञान में तब आया जब अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा ने समय से पहले रिहा किए गए 11 दोषियों में से एक राधेश्याम शाह को दी गई छूट का बचाव करते हुए न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ को बताया कि उनके मुवक्किल ने 15 साल से अधिक की वास्तविक सजा काट ली है और राज्य सरकार ने उसके आचरण पर ध्यान देने के बाद उसे राहत दी.
मल्होत्रा ने कहा, “आज, लगभग एक साल बीत गया है और मेरे खिलाफ एक भी मामला नहीं आया है. मैं एक मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण में वकील हूं. मैं एक वकील था और मैंने फिर से वकालत करना शुरू कर दिया है.” अदालत ने कहा, “सजा के बाद क्या वकालत करने का लाइसेंस दिया जा सकता है? वकालत को एक नेक पेशा माना जाता है. बार काउंसिल (ऑफ इंडिया) को यह बताना होगा कि क्या कोई दोषी वकालत कर सकता है. आप मुजरिम हैं, इसमें कोई शक नहीं. आपको दी गई छूट के कारण आप जेल से बाहर हैं. दोषसिद्धि बनी रहती है, केवल सजा कम कर दी जाती है.”
शाह के वकील ने इस पर कहा, “मैं इस बारे में पक्के तौर पर नहीं कह सकता.” अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24ए में कहा गया है कि नैतिक अधमता से जुड़े अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को वकील के रूप में नामांकित नहीं किया जा सकता है. इसमें यह भी कहा गया है कि नामांकन के लिए अयोग्यता उसकी रिहाई या (मामला) खत्म होने या हटाए जाने के दो साल की अवधि बीत जाने के बाद प्रभावी नहीं होगी.
गुजरात सरकार ने 11 दोषियों को 1992 की छूट नीति के आधार पर रिहा किया था, न कि 2014 में अपनाई गई नीति के आधार पर जो आज प्रभावी है. 2014 की नीति के तहत सीबीआई द्वारा जांच किए गए अपराध के लिए राज्य छूट नहीं दे सकता है या जहां लोगों को बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के साथ हत्या का दोषी ठहराया गया है.