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कानूनी लड़ाई के बाद डीटीसी कर्मी को मिली राहत, दिल्ली HC ने संवाहक की बर्खास्तगी को ठहराया गैरकानूनी

Kunti Dhruw
18 March 2022 7:41 AM GMT
कानूनी लड़ाई के बाद डीटीसी कर्मी को मिली राहत, दिल्ली HC ने संवाहक की बर्खास्तगी को ठहराया गैरकानूनी
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दिल्ली हाईकोर्ट ने करीब 30 वर्ष पहले दिल्ली परिवहन विभाग में कार्यरत्त संवाहक की बर्खास्तगी को गैरकानूनी ठहराया है।

दिल्ली हाईकोर्ट ने करीब 30 वर्ष पहले दिल्ली परिवहन विभाग में कार्यरत्त संवाहक की बर्खास्तगी को गैरकानूनी ठहराया है। अदालत ने माना कि उसके खिलाफ लगाया गया कदाचार का आरोप साबित नहीं हुआ और उसकी बर्खास्तगी में प्राकृतिक न्याय सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया था। अदालत ने विभाग को संवाहक राज कमार गुप्ता को 20 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया है। न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह ने अपने फैसले में श्रम अदालत के राज कुमार को 2006 में बहाल करने के फैसले को उचित ठहराया है। अदालत ने कहा कि वर्तमान में राज कुमार सेवानिवृति की आयु पार कर चुका हैं ऐसे में उसे बहाल करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता।

वर्तमान में एकमात्र मुद्दा पिछले वेतन का है। 30 वर्षों की अवधि से राज कुमार ने निगम में काम नहीं किया और उसकी सेवा की अवधि 10 वर्ष ही है। अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए कहा ऐसे मामले में एकमुश्त भुगतान किया जा सकता है। ऐसे में पूर्ण वेतन के बजाय यह न्यायालय कर्मकार को एकमुश्त मुआवजे के रूप में 20 लाख रुपये की राशि प्रदान करती है।
अदालत ने साथ ही स्पष्ट किया कि वह अपने द्वारा की गई सेवा की अवधि के लिए सभी वैधानिक लाभों जैसे पीएफ, ग्रेच्युटी आदि का हकदार होगा। इसके अलावा उसे पेंशन का भी लाभ दिया जाएगा। अदालत ने कहा अपीलकर्ता को मुआवजे के रूप में 3.25 लाख रुपये भुगतान पहले ही किया जा चुका है। पेश मामले के अनुसार राजकुमार ने निगम में मार्च 1982 में नौकरी शुरू की थी। आरोप लगाया गया कि वह जनवरी 92 से मई 92 के दौरान डयूटी से गैरहाजिर रहा। उसके खिलाफ जांच की गई और उसके खिलाफ गैरहाजिरी व 12 अन्य टिप्पणियों के आधार पर बर्खास्त कर दिया गया। श्रम अदालत ने उसके बाद निगम को 2003 में उसकी बर्खास्तगी गलत ठहराते हुए बहाल करने का निर्देश दिया। इसके बाद से कभी लेबर कोर्ट तो कभी हाईकोर्ट में मामला चलता गया और अब 30 वर्ष हो गए हैं।
अदालत ने कहा कि इस तथ्य को नहीं भूला जा सकता कि कर्मचारी ने मार्च 1982 से जनवरी 1992 के बीच केवल 10 वर्षों की अवधि के लिए काम किया था। कर्मचारी को निगम के साथ काम करते हुए 30 साल हो चुके हैं और कई कारणों से मुकदमेबाजी के दौर में वह अपने मामले को बंद होते नहीं देख पा रहा है। इस न्यायालय का मत है कि चूंकि कर्मकार ने 30 वर्षों की अवधि के लिए सेवा प्रदान नहीं की है, इसलिए पूरा बकाया वेतन नहीं दिया जाना चाहिए।
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