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By: divyahimachal
दिल्ली सरकार के खिलाफ भारत सरकार के अध्यादेश का अस्तित्व कांग्रेस पर टिका है। अध्यादेश ने एक ओर सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ के फैसले को निष्प्रभावी कर दिया है, तो दूसरी तरफ दिल्ली की केजरीवाल सरकार की प्रशासनिक शक्तियां छीन ली हैं। द्वन्द्व दो चुनी हुई सरकारों के बीच है। दरअसल संविधान पर विमर्श करते हुए यह लक्ष्मण-रेखा खींच दी गई थी कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपनी हदें पार नहीं करेंगी। इसी में संविधान और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा और गरिमा निहित है, लेकिन संसद ने अपनी अपरिमित शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सर्वोच्च अदालत के फैसलों को पलटा भी है। वैसे संविधान का अनुच्छेद 123 भारत सरकार और राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है, लेकिन ‘असाधारण स्थितियों’ की शर्त के साथ ही…। संसद का सत्र न चल रहा हो और राष्ट्रपति का विवेक महसूस करता है कि अमुक परिस्थितियों में संवैधानिक, विधायी कदम उठाना अनिवार्य है, तो अनुच्छेद 123 के तहत अध्यादेश जारी किया जा सकता है। दरअसल इस अनुच्छेद के पीछे ‘अति आवश्यकता’ की भावना रही है। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने हाल ही में सर्वसम्मत फैसला सुनाया था कि दिल्ली में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार के नियंत्रण में ही प्रशासनिक तंत्र रहे। अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले भी दिल्ली सरकार के नियंत्रण में हों, क्योंकि चुनी हुई सरकार ही जनता के प्रति जवाबदेह होती है। संविधान पीठ ने उपराज्यपाल के लिए कहा था कि वह दिल्ली कैबिनेट की सलाह पर ही काम करने को बाध्य हैं।
फैसले में ‘संघीय ढांचे’ का बार-बार उल्लेख किया गया था। महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर वह ‘असाधारण परिस्थिति’ क्या थी, जिसके तहत अध्यादेश जारी करना पड़ा? अध्यादेश में स्पष्ट किया गया है कि यह व्यापक देशहित में है कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित केंद्र सरकार के जरिए देश भर के लोगों की भूमिका राष्ट्रीय राजधानी के प्रशासन में भी हो। लोगों की लोकतांत्रिक इच्छा पूरी करने के मद्देनजर अध्यादेश लाया गया है। अध्यादेश के बाद तमाम कार्यकारी, प्रशासनिक अधिकार, उपराज्यपाल के जरिए, केंद्र सरकार के पास आ गए हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने इसी मुद्दे पर देशव्यापी मिशन शुरू किया है। उनका अनुरोध है कि यदि अध्यादेश पर सभी विपक्षी दल लामबंद होते हैं और राज्यसभा में अध्यादेश पर पेश किए जाने वाले विधेयक को परास्त करने में हम सफल होते हैं, तो यह 2024 का सेमीफाइनल होगा। केजरीवाल ने नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे से मुलाकातें की हैं। मुंबई में वह 25 मई को शरद पवार से मिलेंगे। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कांग्रेस है। यदि केजरीवाल के प्रति उसका समर्थन नहीं मिला, तो यह मिशन ध्वस्त हो जाएगा। राज्यसभा में भाजपा-एनडीए का अपना बहुमत तो नहीं है, लेकिन सर्वाधिक 110 सांसद जरूर हैं। बहुमत के लिए सिर्फ 10 और सांसदों की दरकार है, क्योंकि फिलहाल राज्यसभा में कुल 238 सांसद ही हैं। अध्यादेश पर आधारित बिल संसद के मॉनसून सत्र में पेश किया जाना है। दरअसल इस ‘राजनीतिक मिशन’ का उद्देश्य यह है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी (आप) के लिए समर्थन घोषित कर दे। यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि दोनों दलों के संबंध बेहद कटु रहे हैं। दिल्ली की कांग्रेस ईकाई ने आलाकमान को पत्र लिखा है कि ‘आप’ को समर्थन न दिया जाए, क्योंकि खुद केजरीवाल ने दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के संदर्भ में कहा था कि उनका ‘भारत-रत्न’ सम्मान वापस ले लिया जाए। ऐसी स्थिति में कांग्रेस अभी आम आदमी पार्टी से दूर लगती है।
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