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साल में 10 महीने बहती है गंदगी, रसायनों ने घोंट डाला जीवनदायिनी का गला
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न्यूज़क्रेडिट: अमरउजाला
यमुना बदहाल है। दिल्ली में यमुना न तो अविरल है और न निर्मल। साल में अधिकांश समय यह गंदी रहती है। जगह-जगह सूखी रहती है। जब पानी ही नहीं तो प्रवाह कैसा। जो बहता है वह नालों का गंद है जिसमें रसायन भी होते हैं। सफाई के तमाम सरकारी दावों के बावजूद दिल्ली की यमुना की यही तस्वीर है। यमुना बदहाल है। दिल्ली में यमुना न तो अविरल है और न निर्मल। साल में अधिकांश समय यह गंदी रहती है। जगह-जगह सूखी रहती है। जब पानी ही नहीं तो प्रवाह कैसा। जो बहता है वह नालों का गंद है जिसमें रसायन भी होते हैं। सफाई के तमाम सरकारी दावों के बावजूद दिल्ली की यमुना की यही तस्वीर है।
आजादी से पहले 1940 तक दिल्ली के नजदीक दो बांध थे। अपस्ट्रीम में ताजेवाला, जहां से पूर्वी व पश्चिमी यमुना के लिए पानी लिया जाता था और दिल्ली के ओखला बांध से आगरा कैनाल के लिए। नजफगढ़, बारापूला व तेहखंड नाले और भूरिया नदी से अरावली से बारिश का पानी भी यमुना को मिलता था। इससे यमुना के जीवन के लिए प्रवाह पर्याप्त था। इसके बाद 1940, 1953, 1976, 2002 के बीच ताजेवाला/हथिनीकुंड बैराज की ऊंचाई धीरे-धीरे बढ़ाई गई और 8000, 14000, 16000 व 25000 क्यूसेक पानी नहरों में डाल दिया गया। नतीजा बारिश के अलावा बाकी के दस महीनों में दिल्ली पहुंचने से पहले ही नदी का प्रवाह न्यूनतम हो गया।
साहिबी नदी बनाम नजफगढ़ नाला
साहिबी यमुना की सहायक नदी थी। यह गुरुग्राम, नजफगढ़ झील से होकर वजीराबाद में यमुना में मिलती थी। भारतीय संग्रहालय में 1807 का दिल्ली का मैप है, जिसमें आखिरी बार साहिबी दिखती है। इसके बाद आए भूकंप से यह यमुना से कट गई और इसका सारा पानी नजफगढ़ झील में जमा होने लगा। झील का कैचमेंट एरिया उस वक्त 120 वर्ग किमी था। साहिबी के रुक जाने से झील का जलस्तर बढ़ने लगा। 1912 का दिल्ली गजट बताता है एक स्थिति यह आ गई कि झील का पानी सोखने में मिट्टी कम पड़ने लगी और नमी बढ़ने से बुखार समेत दूसरी जलजनित बीमारियां पैदा होने लगीं। इसके बाद 1888 में सर हेनरी डेविड की अगुवाई में नजफगढ़ ड्रेन बनाई गई।
18 छोटी नदियां नालों में तब्दील
दिल्ली में हैरिटेज वॉक से जुड़े सोहेल हाशमी बताते हैं कि दिल्ली की बड़ी नदी यमुना है, उसमें अरावली से 18 छोटी बरसाती नदियां मिलती थीं। अकेले बारापूला नाले में, जहां हुमांयू ने एक पुल बनवाया था और आज उस पर बाजार लगता है, कुशक नाला, सेवा नगर नाला, चिराग दिल्ली का नाला समेत 12 छोटे नाले मिलते थे। आज सब के सब सीवेज ढोने वाले नाले में तब्दील हो गए हैं। तेहखंड नाला और भूरिया नदी भी इस वक्त सीवेज में तब्दील हो गई है। पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के अलावा आजादी के बाद इनकी सूरत इसलिए भी बदली कि दिल्ली के कमोवेश सभी औद्योगिक इलाके इसी दौर में विकसित हुए। जिनका ट्रीटेड/अनट्रीडेड पानी नालों के जरिये यमुना में गिरने लगा। यह वजीराबाद और ओखला के बीच में है। इसी वजह से यमुना सबसे ज्यादा इसी हिस्से में प्रदूषित भी है।
दिल्ली की महामारी और वजीराबाद डैम
दिसंबर 1955 व जनवरी 1956 में दिल्ली में हेपेटाइटिस (ज्वाइंडिस) महामारी आई। एक आंकलन के अनुसार, उस वक्त दिल्ली की 68 फीसदी आबादी (17,86,000) इससे प्रभावित थी और 90 लोगों की मौत हुई। आईसीएमआर ने डॉ. आर. विश्वनाथन की अगुवाई में इसकी जांच के लिए शोध टीम बनाई। विश्वनाथन की रिपोर्ट में दर्ज है कि यमुना के नजदीक नजफगढ़ नाले पर 1947 में शरणार्थियों की 16 कॉलोनियां बसीं। इनकी आबादी 2 लाख है। इन कॉलोनियों में शौचालय तक का इंतजाम नहीं है। नतीजतन इनका अशोधित सीवेज हर दिन नाले से होकर यमुना में मिल रहा है, जबकि यमुना का पानी पीने के लिए इस्तेमाल होता है। इससे महामारी फैली है। टीम की सिफारिश थी कि आगे जलजनित बीमारी से बचने का इकलौता तरीका गंदे पानी को पेयजल के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी में गिरने से रोका जाए।
यमुना जीए अभियान के मनोज मिश्र बताते हैं कि कमेटी की इस सिफारिश ने दिल्ली के साथ यमुना की भी किस्मत तय कर दी। यमुना के साफ पानी को अलग करने के लिए 1957 में वजीराबाद में बैराज का निर्माण तय किया गया। 1959 में इसके बन जाने के बाद बैराज से नीचे नजफगढ़ ड्रेन आ गई, जबकि ऊपर का पानी पीने के लिए इस्तेमाल होने लगा। यमुना में बड़ी खराबी यहीं से शुरू होती है। आगे ओखला तक के 22 किमी हिस्से में यमुना सबसे ज्यादा प्रदूषित है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक, यह हिस्सा पूरी यमुना का सिर्फ दो फीसदी है, जबकि 70 फीसदी प्रदूषित यमुना यहीं होती है।
दिल्ली और यमुना का लेनदेन
दिल्ली दैनिक 953 एमजीडी की अपनी सप्लाई का 50% पीने का पानी यमुना से लेती है। बाकी गंगा व सतलुज नदियों के पानी से दिल्ली बुझाती प्यास।
दिल्ली से निकलता हर दिन 750 एमजीडी मल-जल। शोधन की क्षमता 530 एमजीडी। बाकी बगैर साफ किए यमुना में मिलता।
दिल्ली में पल्ला से बदरपुर तक यमुना 46 िकमी की दूरी तय करती है। वजीराबाद बैराज से ओखला की दूरी 22 किमी है। इसी हिस्से में 70% प्रदूषण होता है।
जमीन उपलब्ध नहीं, यमुना के कायाकल्प की योजना अटकी
वानिकी हस्तक्षेप के साथ केंद्र सरकार की यमुना के कायाकल्प को लेकर तैयार परियोजना भूमि मुद्दे पर अटक गई है। डीडीए ने जमीन न होने की बात कही है। इस संबंध में भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद को जमीन उपलब्ध न होने की बात कही गई है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद द्वारा यमुना को लेकर 13 नदियों के कायाकल्प को लेकर विवरण रिपोर्ट मार्च में जारी की थी।
केंद्र सरकार के अनुसार, प्रस्तावित गतिविधियों में हरित आवरण को बढ़ाने, मिट्टी के क्षरण को कम करने में मदद करेगी। साथ ही जल स्तर को पुनर्भरण और कार्बन डाइऑक्साइड के पृथक्करण में सहायता मिलेगी।
बाढ़ नियंत्रण एवं सिंचाई विभाग के एक अधिकारी के मुताबिक, दिल्ली में यमुना में वजीराबाद बैराज के अपस्ट्रीम में बाढ़ आती है, यह भूमि निजी स्वामित्व की है। ऐसे में इस भूमि का अधिग्रहण आसान नहीं होगा। साथ ही इस जमीन पर दिल्ली सरकार की नजर भूजल रिचार्ज के लिए है। जमीन के इस हिस्से पर गड्ढे बनाकर मानसून में आने वाली बाढ़ के पानी को संरक्षित किया जाएगा, जिससे भूजल को बढ़ाकर दिल्ली में पानी के संकट को खत्म करने में मदद मिलेगी। एक हजार एकड़ जमीन पर ऐसे गड्ढे बनाने की योजना पर काम चल रहा है।
वजीराबाद बैराज से लेकर ओखला बैराज तक यमुना बाढ़ क्षेत्र में डीडीए का अधिकार है। डीडीए के मुताबिक, विकास के लिए नदी किनारे सिर्फ 1,267 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध है। इसमें से 402 हेक्टेयर विभिन्न परियोजनाओं के लिए पौधरोपण के लिए दी जा चुकी है, जबकि 280 हेक्टेयर भूमि विवादाधीन है और वहां सीमांकन प्रक्रिया चल रही है।
डीडीए के मुताबिक, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के आदेश के तहत शेष 585 हेक्टेयर भूमि नदी किनारे पौधरोपण के लिए रखी गई है। ओखला बैराज की डाउनस्ट्रीम में बाढ़ के मैदान में भूमि डीडीए और उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अंतर्गत आती है। डीडीए के अधिकारी का कहना है कि जब तीन साल पहले इस तरह की योजना तैयार की गई थी तो वन विभाग को जमीन को लेकर जानकारी दी गई थी।
तालाब बनाने से मिट्टी बहने से रुकेगी
वन विभाग के अधिकारी का कहना है कि परियोजना नदी के वन क्षेत्रों में समोच्च बांध, मिट्टी के चेक बांध, ब्रशवुड चेक बांध, लूजबोल्डर चेक डैम और तालाब आदि बनाने से मिट्टी बहने से रुकेगी व जल संरक्षण होगा, लेकिन यह तभी किया जा सकता है जब भूमि की उपलब्धता से संबंधित मुद्दे हल हों। इससे पहले वन विभाग ने राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं के लिए नौ हजार हेक्टेयर भूमि की बात कही थी।