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भारत के नॉन बासमती चावल के निर्यात पर लगाए गए बैन ने देश में कीमतों को बढ़ने से रोक लिया हो, लेकिन इसे लेकर यूनाइटेड नेशन के एक सीनियर अधिकारी ने बड़ी आशंका जताई है. उन्होंने इसे लेकर कहा कि भारत के द्वारा चावलों के निर्यात पर लगाए गए बैन के कारण दुनिया के कई इलाकों में अस्थिरता बढ़ सकती है. उन्होंने इस अस्थिरता के पीछे बढ़ती कीमतों को जिम्मेदार ठहराया है. उन्होंने कहा कि ये अस्थिरता एशिया, अफ्रीका और वियतनाम जैसे देशों में देखने को मिल सकती है.
कीमतों में 15 प्रतिशत तक हो चुका है इजाफा
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत के द्वारा निर्यात पर लगाए गए बैन के कारण चावल की कीमतें इन देशों में पिछले 15 साल के टॉप लेवल पर पहुंच चुकी हैं. अगर भारत की हिस्सेदारी की बात करें तो समूची दुनिया में होने वाले चावल के व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत की है. 15 सालों की शीर्ष कीमतों ने खाद्य संकट को बढ़ा दिया है. अंतराष्ट्रीय कृषि विकास कोष का नेतृत्व करने वाले अल्वारो लॉरियो ने कहा कि चावल अफ्रीका में सामाजिक संघर्ष की वजह बन सकता है.
2008 की यादों को कर दिया है ताजा
इन निर्यात प्रतिबंधों ने इससे पहले 2008 में लगाए गए बैन की याद दिला दी है. इसने 100 मिलियन से ज्यादा लोगों को खतरे में डाल दिया था, जिसमें से कई उप सहारा अफ्रीका में थे. उन्होंने ये भी कहा कि उस वक्त एक ओर जहां भारत ने चावल पर बैन लगा दिया था वही वियतनाम ने भी बैन लगा दिया था. भोजन की कमी के कारण अशांति लगातार बढ़ गई थी. लारियो ने ये भी कहा कि ऐसे प्रतिबंध का असर लगाने वाले देश की सीमाओं से दूर देखने को मिलता है. इसका असर सबसे ज्यादा कमजोर आय के लोगों पर देखने को मिलता है. दरअसल खाद्य श्रृंखला में गेहूं से ज्यादा चावल की भूमिका है.
जुलाई में लगा दिया था चावल निर्यात पर बैन
जुलाई में गैर-बासमती चावल के निर्यात पर पूरी तरह से बैन लगा दिया गया था. केन्द्र सरकार के इस फैसले के बाद उन देशों की समस्या बढ़ गई थी जहां भारत से चावल सप्लाई होता था. इनमें सिंगापुर जैसा देश भी था लेकिन बाद में भारत ने सिंगापुर के लिए अपने बैन को वापस ले लिया था. भारत सरकार की ओर से कहा गया था कि सिंगापुर से हमारे अलग तरह के संबंध हैं ऐसे में उसे चावल सप्लाई किया जाता रहेगा. भारत ने 2022-23 में 4.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर का चावल निर्यात किया था. जबकि 2021-22 में ये 2.62 मिलियन अमेरिकी डॉलर था.
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