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संजय पोखरियाली; पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद आम तौर पर ट्विटर पर ही अधिक सक्रिय रहे राहुल गांधी आखिरकार एक सार्वजनिक कार्यक्रम में खुलकर बोले। दिल्ली में आयोजित इस कार्यक्रम में उन्होंने विभिन्न विषयों पर विस्तार से अपनी बात रखी, लेकिन यह समझना कठिन ही रहा कि वह कहना क्या चाहते हैं? उनकी मानें तो उत्तर प्रदेश में हाल के चुनाव के समय कांग्रेस बसपा से गठबंधन करना चाहती थी, लेकिन मायावती ने दिलचस्पी नहीं दिखाई और यहां तक कि कोई जवाब ही नहीं दिया। राहुल गांधी ने मायावती पर यह आरोप भी मढ़ा कि इस बार उन्होंने दलितों के लिए आवाज नहीं उठाई, क्योंकि वह सीबीआइ, ईडी आदि से भयभीत थीं।
मायावती को निशाने पर लेने के पीछे राहुल का जो भी उद्देश्य हो, इसे विस्मृत नहीं किया जा सकता कि वह स्वयं उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए तब सक्रिय हुए, जब चार चरणों का मतदान हो गया था। ऐसा करके उन्होंने जाने-अनजाने यही संदेश दिया कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी संभावनाएं स्याह हैं। आखिर ऐसा संदेश देने वाले राहुल मायावती पर निष्क्रिय होने का आरोप कैसे लगा सकते हैं? नि:संदेह उत्तर प्रदेश में बसपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा और उसे केवल एक सीट मिली, लेकिन शायद अखिलेश यादव की तरह मायावती भी यह जान रही थीं कि कांग्रेस का साथ लेने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। चुनाव परिणाम इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं। कांग्रेस को बसपा से एक सीट अधिक अवश्य मिली, लेकिन वह ढाई प्रतिशत भी मत हासिल नहीं कर सकी, जबकि बसपा को 12 प्रतिशत से अधिक वोट मिले।
कभी सत्ता को जहर बताने वाले राहुल गांधी ने यह भी स्पष्ट किया कि वह सत्ता के बीच पैदा हुए, लेकिन उनकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं। यदि वास्तव में ऐसा है तो फिर उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि कोई भी नेता और राजनीतिक दल तभी आगे बढ़ पाता है, जब वह सत्ता हासिल करने के लिए संघर्ष करता है। आखिर सत्ता की चाह न रखने वाला नेता अपने कार्यकर्ताओं को प्रेरित कैसे कर सकता है? राहुल गांधी कुछ भी दावा करें, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस रसातल में जा रही है। इसका एक बड़ा कारण उनका वह रवैया है, जो यही बताता रहता है कि वह आधे-अधूरे मन से राजनीति कर रहे हैं।