सम्पादकीय

प्लास्टिक का विकल्प और सवाल

Subhi
7 July 2022 3:54 AM GMT
प्लास्टिक का विकल्प और सवाल
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सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक उत्पादों में थैलियां, पैकिंग फिल्म, फोम वाले कप-प्याले, कटोरे, प्लेट, लेमिनेट किए गए कटोरे व प्लेट, छोटे प्लास्टिक कप और कंटेनर जैसे प्लास्टिक उत्पाद शामिल हैं।

अखिलेश आर्येंदु; सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक उत्पादों में थैलियां, पैकिंग फिल्म, फोम वाले कप-प्याले, कटोरे, प्लेट, लेमिनेट किए गए कटोरे व प्लेट, छोटे प्लास्टिक कप और कंटेनर जैसे प्लास्टिक उत्पाद शामिल हैं। इनकी खपत रोजमर्रा में सबसे ज्यादा होती है। इनकी जगह मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल कई तरह से मुफीद हो सकता है।

एक जुलाई से प्लास्टिक और थर्माकोल से बने कई उत्पादों पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी है। गौरतलब है कि इसके पहले 23 दिसंबर 2019 को प्लास्टिक के थैलों पर रोक लगाई गई थी। सर्वोच्च न्यायालय प्लास्टिक से बढ़ रहे वायु, जल और मिट्टी प्रदूषण के मद्देनजर रोक लगाने का निर्देश केंद्र सरकार को पहले ही दे चुका है। केंद्रीय पर्यावरण के वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ने 16 जून, 2021 को इस आशय का निर्णय लेने के बाद 18 जून, 2021 को इसे गजट में प्रकाशित किया था।

गजट प्रकाशन के एक सौ अस्सी दिन बाद 15 दिसंबर 2021 को प्लास्टिक के कई उत्पादों पर रोक लगाने का फैसला किया गया था, लेकिन इसे लागू अब एक जुलाई से किया गया। केंद्र सरकार का यह कदम जलवायु संकट की रोकथाम के मद्देनजर उठाया गया है। इसे असरदार तरीके से लागू करने के लिए सरकार ने जहां नियम बनाएं हैं, वहीं इन नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए कड़े कानून भी बनाए गए हैं। अब देखना यह है कि इस बार नए आदेश पर अमल कितना और कैसे हो पाता है और सरकारी व अर्धसरकारी विभागों में कितनी कड़ाई से इसका पालन कराया जाता है?

एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और थर्माकोल पर पाबंदी के बाद यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर इसका विकल्प क्या हो। हालांकि विकल्प तलाशना और व्यवहार में लाना असंभव काम नहीं है। इसके अलावा एक सवाल प्लास्टिक उत्पादों के उद्योगों से भी जुड़ा है, जो तत्काल और स्थायी समाधान मांगता है। जहां तक बात प्लास्टिक उत्पादों के विकल्प की है तो भारतीय कुटीर उद्योग परंपरा में इस्तेमाल की जाने वाली तमाम चीजें जैसे कागज, फाइबर और मिट्टी के बनाए बर्तन आदि इसमें शामिल किए जा सकते हैं।

कागज के थैलों के चलन को बढ़ावा देकर बड़े पैमाने पर प्लास्टिक की थैलियों को चलन से बाहर किया जा सकता है। गौरतलब है कि भारतीय स्वदेशी उत्पादों में कुम्हारी कला के जरिए बनाए गए बर्तन भी आते हैं। मानव सभ्यता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले प्लास्टिक के उत्पादों की जगह ये सबसे बेहतर विकल्प हो सकते हैं। सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक उत्पादों में थैलियां, पैकिंग फिल्म, फोम वाले कप-प्याले, कटोरे, प्लेट, लेमिनेट किए गए कटोरे व प्लेट, छोटे प्लास्टिक कप और कंटेनर जैसे प्लास्टिक उत्पाद शामिल हैं। इनकी खपत रोजमर्रा में सबसे ज्यादा होती है। इनकी जगह मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल कई तरह से मुफीद हो सकता है।

प्लास्टिक धरती के लिए खतरा इसलिए बन गया है कि यह आसानी से नष्ट नहीं होता। जाहिर है, ऐसे में इसका कचरा बढ़ता रहेगा। प्लास्टिक कचरे के बारे में एक अनुमान यह है कि दुनिया में आज जितना प्लास्टिक कचरा है, उससे तीन माउंट एवरेस्ट के बराबर तीन पहाड़ खड़े किए जा सकते हैं। मुश्किल यही है कि सामान्य प्लास्टिक को सड़ने में भी दो सौ से पांच सौ साल चाहिए, खत्म होना तो दूर की बात है। इसके बावजूद प्लास्टिक उत्पादों से लोग छुटकारा नहीं पा रहे हैं। वजह साफ है कि यह सस्ता है और हर जगह आसानी से उपलब्ध है।

इसलिए इसके जहरीलेपन को भी नजरअंदाज कर धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। प्लास्टिक कचरे का खतरा इसलिए भी बढ़ गया है कि इसका अस्सी फीसद हिस्सा समुद्र में जा रहा है और समुद्री पर्यावरण तेजी से बिगड़ रहा है। समुद्र में पाए जाने वाले स्तनधारी जीव तक प्लास्टिक खा जाते हैं और अकाल मौत का शिकार बन रहे हैं। अनुमान के मुताबिक प्लास्टिक खाकर हर साल तकरीबन एक लाख समुद्री जीव-जंतु मर जाते हैं, जिनमें सील, व्हेल, समुद्री कछुए भी शामिल हैं। मछलियों की तो कोई गिनती ही नहीं है।

झारखंड, बिहार, ओड़ीशा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देशभर में प्रचलित कुटीर उद्योगों में शुमार मिट्टी के बेहतरीन बर्तनों और पत्तों से बने दोने-पत्तलों का चलन अब बीते वक्त की बात हो चली है। इससे जुड़े कुम्हार और दूसरे समुदाय के लोगों के सामने जीविका का संकट भी खड़ा ही है। गौरतलब है, मुसहर जाति के लोगों की जीविका का एकमात्र साधन दोने-पत्तल और खजूर की पत्तियों से झाडू बनाना रहा है। गांव-देहात में इनकी ज्यादा खपत होने की वजह से इससे जुड़े परिवार गांवों में जाकर इन्हें बेच लेते थे या लोग इनके यहां जाकर खरीद लाते थे। लेकिन बदलते वक्त में गांवों में भी जिस तरह से शहरीकरण और बाजारीकरण पसरा है, तब से गांवों में न दोने-पत्तलों की जरूरत रह गई है और न मिट्टी के बर्तनों की।देश के कई इलाके ऐसे हैं जहां परंपरागत रोजगार अभी भी प्रचलन में हैं, लेकिन वे भी पहले की अपेक्षा काफी कम हो गए हैं।

इसकी वजह भी हर जगह कागज और प्लास्टिक के बने दोने-पत्तलों और बर्तनों का बढ़ता प्रचलन है। गौरतलब यह भी कि जो परिवार पिछले आठ-दस पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े थे, वे अब मजबूरी में दूसरे पेशों में लग गए हैं। अभी भी जो परिवार मजबूरी में अपने परंपरागत व्यवसायों में लगे हैं, उनके सामने और गंभीर समस्याएं हैं। सबसे पहली तो कच्चे माल की कमी है। कुम्हारों को जहां मिट्टी, पानी, उपले आदि का संकट झेलना पड़ता है, वहीं दोने-पत्तल बनाने वालों को पेड़ के पत्ते आसानी से नहीं मिल पाते। पहले तो जंगलों से पेड़ के पत्ते आसानी से मिल जाते थे, लेकिन सरकारी कानूनों और प्रतिबंधों की वजह से अब तो पत्ते तोड़ना भी अपराध हो गया है।

पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदायक माने जाने वाली प्लास्टिक थैलियों, बर्तनों और दूसरे उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की पहल हो चुकी है। लेकिन दूसरे कानूनों की तरह ही प्लास्टिक उत्पादों को खरीदने-बेचने पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही। यही वजह है कि दिल्ली सहित दूसरे राज्यों में धड़ल्ले के साथ प्लास्टिक के सभी तरह के उत्पाद अभी भी बिक रहे हैं।

केंद्र सरकार के आंकड़े के मुताबिक देशभर में पैंसठ लाख परिवार कुम्हारी कला पर निर्भर हैं। इसी तरह तकरीबन एक लाख मुसहर परिवार आज भी दोने-पत्तल बनाने के परंपरागत काम में लगे हैं। दिल्ली में ही करीब डेढ़ हजार परिवार कुम्हारी कला से जुड़े हैं, लेकिन उन्हें मिट्टी, पानी और इसमें इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजें आसानी से नहीं मिल पातीं। दूसरी बात यह कि एक बार उपयोग होने वाले प्लास्टिक की भरमार होने और सस्ता होने की वजह से भी मिट्टी के बर्तनों की खपत मामूली ही होती है। प्लास्टिक की चमक-दमक और इस्तेमाल करके फेंकने की आदत होने की वजह से भी मिट्टी के उत्पादों से लोग बचते हैं। जबकि मिट्टी के बर्तनों के इस्तेमाल से न पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचता है और न किसी तरह की बीमारी का खतरा होता है।

सैकड़ों प्लास्टिक उत्पादों की भरमार से कस्बों और गांवों के कुओं व नहरों का जल भी प्रदूषित होता जा रहा है। इससे जल स्रोत जहरीले होने लगे हैं और लोग कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक सत्तर के दशक के बाद प्लास्टिक का उपयोग शहरी, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में तेजी से बढ़ता गया और कई बीमारियों का कारण बन गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर हम प्लास्टिक की जगह मिट्टी से बने उत्पादों के इस्तेमाल करने लगें तो कितनी बड़ी और गंभीर समस्याओं से निजात पा सकते हैं। संकट प्लास्टिक के विकल्पों का नहीं है, बल्कि इच्छाशक्ति है कि कैसे हम इससे छुटकारा पाएं।


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