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किसान कृषि अध्यादेश के खिलाफ क्यों कर थे आंदोलन?
कृषि कानूनों (Farms Laws) की तारीफ करते-करते आखिरकार सरकार ने इन्हें वापस ले लिया. आज से ठीक 532 दिन पहले 5 जून को कृषि क्षेत्र में सुधार के नाम पर सरकार ने दो अध्यादेश जारी किए थे. जिनके खिलाफ किसानों की लंबी लडाई के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे वापस लेने का एलान किया. इसी 26 नवंबर को किसान आंदोलन (Farmers Protest) के एक साल पूरे होने वाले थे. बताया जा रहा है कि कानून वापसी के पीछे एक बड़ा कारण पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं. जिसमें पंजाब, यूपी और उत्तराखंड जैसे कृषि आधारित प्रदेश शामिल हैं.
सरकार कह रही थी कि यह कानून किसानों के हित में हैं जबकि किसान कह रहे थे कि यह कुछ औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए हैं. राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद बिल 27 सितंबर को कानून बन गए थे. इन कानूनों को लेकर दोनों पक्षों के क्या तर्क थे, आईए विस्तार से समझते हैं.
एमएसपी और मंडी का मामला
कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) अधिनियम लाने के पीछे सरकार का तर्क था कि इस कानून के तहत देश के किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए अधिक विकल्प मिलेगा. साथी ही खरीद-फरोख्त पर टैक्स वसूली पर रोक लगेगी.
लेकिन किसानों को लगा कि इसकी वजह से धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) खत्म हो जाएगा और कृषि उपज मंडी समिति (APMC) यानी मंडियां बंद हो जाएंगी.
दरअसल, इस डर के पीछे वजह ये थी इस बिल में सरकार ने मंडी से बाहर भी ट्रेड एरिया घोषित कर दिया था. लेकिन इस ट्रेड एरिया में एमएसपी मिलेगा या नहीं इस पर कुछ भी स्पष्ट नहीं था. यानी मंडी के अंदर लाइसेंसी ट्रेडर किसान से उसकी उपज एमएसपी पर लेते, लेकिन बाहर कारोबार करने वालों के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं थी.
सवाल ये है कि केंद्र सरकार ने बिल में कहीं भी नहीं लिखा था कि मंडियां खत्म हो जाएंगी. फिर किसानों को ऐसा क्यों लग रहा था?
दरअसल, मंडियों के अंदर कारोबार पर औसतन 6-7 फीसदी तक का मंडी टैक्स लगता है. यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. लेकिन सरकार ने नए कानून के तहत मंडियों के बाहर जो ट्रेड एरिया घोषित किया था उस पर कोई टैक्स नहीं लगने की बात की गई थी.
ऐसे में किसानों और व्यापारियों को लगता था कि टैक्स न लगने के कारण मंडी से बाहर कृषि कारोबार फले-फूलेगा, जबकि वहां पर एमएसपी जैसे दाम का कोई बेंच मार्क तय नहीं है. आढ़तिया अपने 6-7 फीसदी टैक्स का नुकसान न करके मंडी से बाहर खरीद करेंगे. इस फैसले से मंडी व्यवस्था धीरे-धीरे चरमरा जाएगी. सरकारी मंडियां बंद हो जाएंगी. इस तरह धीरे-धीर किसान बाजार के हवाले चला जाएगा. जहां उसकी उपज का सही रेट नहीं मिलेगा.
कांट्रैक्ट फार्मिंग के प्रावधान
सरकार का तर्क था कि मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा बिल के तहत होने वाली कांट्रैक्ट फार्मिंग (Contract farming) से किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिलेगा. खेती से जुड़ा जोखिम कम होगा. आय में वृद्धि होगी. क्योंकि दाम पहले से तय हो जाएगा.
लेकिन इस एक प्रावधान ने किसानों को सरकार पर शक करने का एक मौका दे दिया. क्योंकि इसमें किसानों के अदालत जाने का हक छीन लिया गया था. किसानों और कांट्रैक्ट फार्मिंग करवाने वाली कंपनियों के बीच कोई विवाद होने पर एसडीएम ही फैसला करता. उसकी अपील सिर्फ जिलाधिकारी के यहां होती न कि अदालत में. हालांकि, जमीन छिन जाने वाली आशंका बेबुनियाद थी क्योंकि इसमें साफ लिखा गया था कि किसी रकम की वसूली के लिए कोई पक्ष किसानों की कृषि भूमि (Agri Land) के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाएगा.
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