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81000 से अधिक जगहों पर जलाई गई पराली
पंजाब, हरियाणा, यूपी, दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पिछले दो महीने के दौरान ही 81,060 जगहों पर पराली जलाने (Stubble Burning) की घटनाएं हो चुकी हैं. इससे पता चलता है कि तमाम सरकारी प्रयास और दावे महज कागजी साबित हो रहे हैं. पराली जलाने में पंजाब अव्वल है. हालांकि वहां पिछले साल के मुकाबले घटनाओं में कमी आई है. जबकि 15 सितंबर से 15 नवंबर तक की बात करें तो 2020 के मुकाबले हरियाणा में पराली जलाने की घटनाओं में 54.7 परसेंट की वृद्धि हो गई है.
इस आंकड़े को देखते हुए क्या यह माना जाए कि पराली मैनेजमेंट की मशीनों पर सब्सिडी देने का कोई फायदा नहीं पहुंच रहा है. या यह माना जाए कि पूसा डीकंपोजर (Pusa decomposer) जैसे सस्ते विकल्प की जानकारी भी किसानों तक नहीं पहुंच पाई है.
पराली जलाने के मामले में राज्यों का रिपोर्ट कार्ड
केंद्र सरकार 15 सितंबर से पराली जलाने की घटनाओं की सैटेलाइट के जरिए मॉनिटरिंग कर रहा है. इसके मुताबिक 15 नवंबर तक पंजाब में सबसे अधिक 67,165 जगहों पर पराली जलाई गई है. जबकि 2020 में इसी अवधि के दौरान यहां पर 80,090 जगहों पर ऐसी घटनाएं हुई थीं.
दूसरी ओर हरियाणा में इस साल 5724 जगहों पर पराली जली है. जबकि 2020 में 15 सितंबर से 15 नवंबर के बीच महज 3701 जगहों पर पराली जलाई गई थी. उत्तर प्रदेश में इस साल अब तक 2448, दिल्ली में 4, राजस्थान में 746 एवं मध्य प्रदेश में 4973 जगहों पर पराली जली है.
पराली का प्रदूषण में योगदान
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 15 नवंबर को देश में 2361 जगहों पर पराली जलाई गई. जबकि, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की संस्था सफर (SAFAR-सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फॉरकास्टिंग एंड रिसर्च) के मुताबिक इस दिन प्रदूषण में पराली का योगदान 10 फीसदी रहा.
पराली को लेकर वैज्ञानिकों ने दी किसानों को सलाह
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के वैज्ञानिकों ने किसानों को सलाह दी है कि खरीफ फ़सलों (धान) के बचे हुए अवशेषों (पराली) को ना जलाएं. क्योंकि इससे वातावरण में प्रदूषण होता है. जिससे स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है. इससे उत्पन्न धुंध के कारण सूर्य की किरणें फसलों तक कम पहुंचती हैं, जिससे फसलों में प्रकाश संश्लेषण और वाष्पोत्सर्जन की प्रकिया प्रभावित होती है. ऐसा होने से भोजन बनाने में कमी आती है. इस कारण फसलों की उत्पादकता व गुणवत्ता प्रभावित होती है.
किसानों को सलाह है कि धान के बचे हुए अवशेषों को जमीन में मिला दें. इससे मृदा की उर्वकता बढ़ती है. साथ ही यह पलवार का भी काम करती है. जिससे मृदा से नमी का वाष्पोत्सर्जन कम होता है. नमी मृदा में संरक्षित रहती है. धान के अवशेषों को सड़ाने के लिए पूसा डीकंपोजर कैप्सूल का उपयोग 4 कैप्सूल प्रति हेक्टेयर की दर से किया जा सकता है.
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