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आमजन के लिए स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई थीं। लोगों में इससे काफी गुस्सा था
डॉ चन्द्रकांत लहारिया का कॉलम:
दूसरे विश्वयुद्ध के समय भारत और ब्रिटेन को स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का मौका मिला था, लेकिन क्या नतीजा निकला? तब सैनिक का इलाज सरकारों की प्राथमिकता बन गई थी और सभी देशों ने स्वास्थ्यकर्मियों को सेना के साथ भेज दिया था।
आमजन के लिए स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई थीं। लोगों में इससे काफी गुस्सा था। उसको शांत करने के लिए भारत और ब्रिटेन की सरकारों ने स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए उच्चस्तरीय समितियां गठित की थीं। ब्रिटेन में जून 1941 में विलियम बेवरिज और भारत में अक्टूबर 1943 में सर जोसेफ भोर की अध्यक्षता में स्वास्थ्य समितियां बनाई गईं। दोनों की रिपोर्ट में लगभग एक जैसे सुझाव दिए गए।
लेकिन अंत में फर्क यह रहा कि बेवरिज की रिपोर्ट के आधार पर ब्रिटेन में जुलाई 1948 में नेशनल हेल्थ सर्विसेज का गठन किया गया, जो दशकों बाद भी अच्छी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए दुनिया के लिए एक उदाहरण हैं। इसके विपरीत भारत में 'भोर कमेटी' की रिपोर्ट पर चर्चा तो खूब हुई, लेकिन ठोस कदम नहीं उठाए गए।
उस रिपोर्ट में दिए कई सुझाव आज भी प्रासंगिक हैं। स्थिति यह है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर लोग जेब से पैसा लगाते हैं, जबकि दुनिया भर में स्वास्थ्य का लगभग पूरा खर्च सरकारें उठा रही हैं। भारत में भी स्वास्थ्य सेवाएं सुधरी तो हैं लेकिन धीमी गति से।
कमी कहां रह गई? सबसे प्रमुख बात है कि देश में केंद्र और राज्य सरकारों का स्वास्थ्य पर कुल खर्च दुनिया के अधिकतम देशों से कम है। भारत की 2002 की स्वास्थ्य नीति में इसे 2010 तक बढ़ाकर 2 फीसदी तक लाने का वादा किया गया था। फिर 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में इसे 2.5 प्रतिशत करने के लिए कहा गया।
लेकिन पिछले बीस सालों में सरकारों का स्वास्थ्य पर खर्च बहुत कम बढ़ा है और आज भी यह मात्र 1.3 फीसदी ही है। 2017 की स्वास्थ्य नीति कहती है कि राज्य कुल सरकारी खर्चे का 8 फीसदी स्वास्थ्य के लिए आबंटित करें, लेकिन पिछले 15 सालों में यह औसतन 5 फीसदी पर ही बना हुआ है। साल दर साल सरकारें नई स्वास्थ्य योजनाएं घोषित करती हैं, लेकिन पर्याप्त धन आबंटन के अभाव में उनका क्रियान्वयन कमजोर रहता है।
इस स्थिति को कैसे बदला जाए? उत्तर है, सरकारों की जवाबदेही बढ़ानी होगी और हर आमजन को सरकारी स्वास्थ्य खर्च पर निगरानी रखनी होगी। 1 फरवरी को आम बजट पेश किया जाएगा। बाद के दिनों में राज्य सरकारें भी बजट प्रस्तुत करेंगी।
कोविड-19 की दूसरी लहर में हम देख चुके हैं कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं कितनी कमज़ोर हैं। इसलिए इस बार जब बजट आए तो जिम्मेदार नागरिक के रूप में इस पर ध्यान दीजिए कि बजट में स्वास्थ्य, शिक्षा तथा पोषण जैसे सामाजिक क्षेत्रों के लिए आबंटन में कितनी बढ़ोतरी हुई है।
इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों में नगर निगम और नगर पालिकाओं तथा ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों पर भी स्वास्थ्य और शिक्षा की जिम्मेदारी होती है। अगली बार जब नगर निगम या जिला पंचायत का बजट आए तो उसमें देखें कि पिछले वर्ष की तुलना में नए साल के लिए कितना बजट मिला है।
अगर स्वास्थ्य पर पर्याप्त आबंटन नहीं है तो आप जनप्रतिनिधियों से सवाल पूछ सकते हैं। इस तरह आप जनतंत्र में नीति निर्धारण में भूमिका निभाएंगे। जन-निगरानी और सामूहिक जवाबदेही ही भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करेगी।
अगर कोरोना जैसी महामारी के बाद भी सरकारें आबंटन नहीं बढ़ाएंगी तो कब? हम आजादी के समय स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का एक मौका गंवा चुके हैं। दूसरे मौके को आमूलचूल सुधारों के लिए इस्तेमाल करेंगे या नहीं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Gulabi
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