
लवासा भारत का पहला प्लांड हिल स्टेशन था। अरबों रुपये इसे बनाने के लिए इन्वेस्ट किए गए। हजारों लोगों ने यहां अपने पैसे लगाए, लेकिन जिस लवासा सिटी को दो लाख लोगों के लिए डिजाइन किया गया था वहां आज 20 हजार लोग भी नहीं रहते। नियमों को नहीं मानना और कई सारे गलत फैसलों का अंजाम बुरा ही होता इसका इसका लवासा सबसे सटीक उदाहरण है। आइए जानते हैं लवासा था क्या और इसके साथ हुआ क्या?
कहां से आया लवासा शहर बसाने का आइडिया?
अजीत गुलाब चंद जो एचसीसी (Hindustan Construction Company Limited) नामक कंपनी के एमडी थे। वे एक बार इटली के पोर्टो फिनो शहर गए थे। उन्हें वह शहर इतना पसंद आया कि उन्होंने एक ड्रीम प्रोजेक्ट अपने मन ठान लिया। उन्होंने तय किया कि उन्हें भारत में भी ऐसी विश्वस्तरीय सुविधाओं के साथ एक शहर बनाना है। कुछ साल प्लान करने के बाद साल 2000 से साल 2003 के बीच अजीत गुलाब चंद और एचसीसी ने मिलकर महाराष्ट्र में पुणे के पास सहयाद्रि माउंटेन के बीच एक जगह तय की और मुंशी तालुका स्थित एक स्थान पर लवासा सिटी बनाने का निर्णय लिया और इसका काम शुरू कर दिया गया। लवासा के शुरुआती प्लान में पांच सब टाउन थे और हर टाउन एक वैली में एक वाटर बॉडी के पास बसा था। आप कह सकते हैं हर टाउन को अपना एक लेक एक्सेस दिया गया था। हर टाउन की अपनी एक अलग विशेषता थी। कहीं रेसिडेंशियल, कहीं अम्यूजमेंट, कहीं फिल्म प्रोडक्शन तो कहीं आईटी के लिहाज से अलग-अलग टाउन को डिजाइन किया गया था। इन टाउन्स में बड़े पैमाने पर काफी सुंदर घर, विला व टूरिस्ट स्पाट बनाए जा रहे थे।
25000 एकड़ जमीन पर होना था लवासा सिटी का निर्माण
लोग अच्छी खासी कीमत पर अपनी लाइफ सेविंग्स यहां निवेश कर रहे थे या फिर बैंक से अच्छे खासे ब्याज पर लोन लेकर यहां घर खरीद रहे थे। लोगों से वादा किया जा रहा था कि यहां अंतरराष्ट्रीय संस्थान बनेंगे जिसमें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की इकाई भी शामिल होगी। खेलों के लिए भी आधारभूत संरचना भी विकसित की जाएगी। यहां मैनचेस्टर क्लब भी पार्टनर के तौर पर काम करेगी। इसके अलावे कई एमएनसी, आईटी कंपनी और लग्जरी होटल चेन यहां अपने प्रोजेक्ट बनाएंगे ऐसा लोगों को कहा गया था। इसके कारण लवासा देखते ही देखते भारत का सबसे पसंदीदा रियल एस्टेट प्रोजेक्ट बन गया था और उसी हिसाब से लोग यहां अपनी गाढ़ी कमाई का निवेश कर रहे थे। ये सारी चीजें 25000 एकड़ जमीन में फैली होगी, जो उस समय के लिए किसी सिंगल प्रोजेक्ट के हिसाब से एक बहुत बड़ी जमीन थी। शुरुआती दौर में लवासा में बहुत तेजी से काम हुआ। साल 2008-09 तक कुछ इलाके तैयार हो गए थे और लोगों को दिखने लगा था कि लवासा शहर कैसा बनेगा।
साल 2010 के बाद सामने आने लगे लवासा से जुड़े विवाद
लेकिन, साल 2010 के बाद चीजें बदलने लगी। वेस्टर्न गार्ड या सहयाद्रि माउंटेन रेंज यूनेस्को प्रोटेक्टेड नैचुरल जोन है। इसलिए इस इलाके में निर्माण के लिए बहुत सारे परमिशन की जरूरत होती है। लेकिन लवासा ने निर्माण शुरू करने के पहले जरूरी परमिट लेना जरूरी नहीं समझा। कई लोगों की ओर से पर्यावरण मंत्रालय को शिकायत की गई। बहुत ज्यादा शिकायत आने के बाद मंत्रालय ने कार्रवाई शुरू की। लवासा ने राज्य सरकार से तो इजाजत ली थी लेकिन केंद्र सरकार से नहीं। आखिरकार पर्यावरण मंत्रालय ने 2011 में अपने पूरे साइट पर सारे के सारे काम बंद करने के निर्देश दिए। लवासा और महाराष्ट्र सरकार ने तर्क दिया कि चुंकि लवासा सिटी समुद्र तल से 100 मीटर ऊपर नहीं है इसलिए यह हिल डेवलपमेंट के नियमों के तहत नहीं आता इसलिए केंद्र के परमिशन की जरूरत नहीं है। लेकिन सच्चाई यह थी कि लवासा समुद्र तल से 100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित था। साथ-साथ पर्यावरण मंत्रालय के उस समय के एक और नियम के मुताबिक अगर कोई प्रोजेक्ट 50 करोड़ से अधिक का है और एक हजार से अधिक लोगों को वहां इन्वॉल्व होना है तो ऐसे प्रोजेक्ट के लिए केंद्र से परिमशन लेना जरूरी है। पर ये काम नहीं किया गया।
राज्य और केंद्र सरकार की रस्साकशी में वर्षों बंद रहा काम
राज्य और केंद्र के इसी विवाद के कारण लवासा का काम कई वर्षों तक बंद रहा। इतने बड़े प्रोजेक्ट को बनाने के पहले जाहिर तौर पर कई लोगों की भागीदारी होती है। कोई निजी कंपनी अकेले इतने बड़े फैसले नहीं ले सकती। काम रोक देने के बाद एक-एक करके कई गड़बड़ियां सामने आई। लवासा को महाराष्ट्र सरकार की ओर से स्पेशल प्लानिंग अथॉरिटी का दर्जा दिया गया था, जो उससे पहले सिर्फ सरकारी संस्थानों को दिया गया था। निजी कंपनी को यह दर्जा दिया गया इस कारण कई लोगों के कान खड़े हो गए। योगेश प्रताप सिंह उस समय एक आईपीएस अधिकारी थे, और वर्तमान में अधिवक्ता हैं, उन्होंने आरोप लगाया कि लवासा के लिए जरूरी काफी जमीन उसे बहुत ही सस्ती कीमतों पर लवासा कॉरपोरेशन को लीज पर दिया गया। इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने उसकी मदद की है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी दावा किया गया कि पूरी 25 हजार एकड़ जमीन लवासा कॉरपोरेशन को महज 75 हजार रुपये सालाना के किराये पर लीज पर दिया गया था। उस समय महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम और सिंचाई मंत्री रहे अजीत पवार पर भी आरोप लगे थे। बता दें कि फिलहाल लवासा मामले में सवालों के घेरे में रहे एनसीपी नेता शरद पवार के भतीजे अजीत पवार अब भी महाराष्ट्र की सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं।
लवासा शहर का काम ठप पड़ने से डूब गई लोगों की गाढ़ी कमाई
विवादों के बाद लवासा का काम ठप पड़ गया। लवासा कॉरपोरेशन की पैरेंट कंपनी पहले से ही दो हजार करोड़ रुपये के कर्जे में थी, वो इस प्रोजेक्ट को फिर से संभालने में सक्षम नहीं थी इस कारण परियोजना का निर्माण फिर शुरू नहीं हो पाई। जिन लोगों ने अपनी पूरी कमाई और लोन लेकर यहां निवेश किया था वो पैसे बर्बाद हो गए। जिस समय काम बंद हुआ उस समय दो टाउन्स पर काम चल रहे थे, उनमें से एक पूरी तरह तैयार हो गया था और कई बिजनेस वहां शुरू हो गए थे। आज की बात करें तो लवासा आज सिर्फ एक छोटा सा टूरिस्ट स्पॉट बनकर रह गया है जहां लोग मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे होते हुए लोग पिकनिक मनाने पहुंचते हैं। हालांकि लोगों की संख्या कम रहने के कारण यहां के बिजनेस को आमदनी नहीं हो पा रही थी, जिससे लवासा की सुंदरता प्रभावित होने लगी। धीरे-धीरे लवासा में पर्यटकों का आना बिल्कुल बंद हो गया।
एनसीएलटी की मंजूरी के बाद लवासा मामले में अब क्या होगा?
लवासा मामला अगस्त 2018 में एनसीएलटी के पास पहुंचा और दिवाला व शोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) के तहत दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू की गई। अब राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) ने निजी हिल स्टेशन लवासा के लिए दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू होने के लगभग पांच साल बाद 1,814 करोड़ रुपये की समाधान योजना को मंजूरी दी है।न्यायाधिकरण ने शुक्रवार को पारित 25 पेज के आदेश में 1,814 करोड़ रुपये के निवेश की समाधान योजना को मंजूरी दी। आदेश में कहा गया, 'इस राशि में 1,466.50 करोड़ रुपये की समाधान योजना राशि शामिल है, जिससे कॉरपोरेट कर्जदार को किश्तों में दिए गए धन के लिए भुगतान किया जाएगा।' समाधान योजना को एक निगरानी समिति की देखरेख में लागू किया जाएगा। इस समिति में दिवाला पेशेवर, वित्तीय ऋणदाता और डार्विन प्लेटफॉर्म का एक-एक प्रतिनिधि शामिल होगा। एनसीएलटी ने कहा, 'समाधान योजना संहिता के साथ ही विनियमनों के तहत सभी जरूरी वैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। हम इसे मंजूरी देते हैं।'
