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By: divyahimachal
उधार की रोटियां आदत बिगाड़ सकती हैं, लेकिन जीने का सबब नहीं बन सकतीं। आर्थिक कंगाली का लबादा हटाना नामुमकिन नहीं, फिर भी वर्षों की आदत को मिटाना इतना भी आसान नहीं कि बिना तैयारी के हिमाचल कर्ज की फांस से मुक्त हो जाए। बेशक कोशिश के हर मुकाम पर सुक्खू सरकार नए रास्ते अख्तियार करने का जज्बा रखती है और लक्ष्यों की फेहरिस्त में आत्मनिर्भरता के कठिन डग उठाने को तत्पर है, लेकिन आर्थिक क्रांति के मुहाने पर समय के विपरीत खड़े होने के लिए कुछ वक्फा तो चाहिए। यहां बिसात पर बिछी राजनीति और इम्तिहान में आई मुश्किल पहेलियों का उत्तर ढूंढने की चुनौती मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू के दरपेश है। हालांकि उधार की सीमा घटाने-बढ़ाने के वित्तीय मानदंड या आर्थिक पैमाने हो सकते हैं, लेकिन हिमाचल में सत्ता परिवर्तन को नचाने या विवश करने का भी यह तरीका हो सकता है। पिछली डबल इंजन सरकार के दौर में जिस तरह उधार उठाने की सीमा को बढ़ते देखा जा रहा था, उसे अब घटता देखने से कुछ तो सियासी द्वंद्व का आभास होता है। ऋण किस हद तक लेना मुनासिब है, यह हिमाचल ने शायद अब तक सीखा नहीं, फिर भी सरकारों की उदारता, नागरिकों की ख्वाहिशों और आर्थिक विषमताओं को ढोने की विवशता ने राज्य को कर्ज में अपना बजट व भविष्य ढूंढने की आदत डाल दी। इसी परिप्रेक्ष्य में पिछली सरकार की उधार लेने की वार्षिक क्षमता को 14500 करोड़ तक पहुंचाने वाला केंद्र अब 5500 करोड़ तक घटाने की नसीहत दे रहा है।
यानी यह तय है कि केंद्र प्रदेश सरकार की नीति व नीयत को अपने लिए राजनीतिक प्रतिस्पर्धा मान कर उन तमाम कोशिशों को पलीता लगा रहा है, जो अब तक बेजुबान रहे आर्थिक अधिकारों के बंद तालों को खोलना चाहती है। विधानसभा चुनाव के राजनीतिक गणित में आड़े आई ओपीएस अब प्रदेश के वित्तीय हिसाब पर दबाव डाल रही है, तो इसी को दुखती रग समझकर केंद्र ने भी रंग में भंग डालने का मसौदा तैयार कर लिया है। एनपीएस की केंद्र के पास पहले से जमा करीब 9300 करोड़ राशि वापस लेने पर आमदा सुक्खू सरकार को न नुकर का सामना करना पड़ रहा है, तो अब ऋण लेने की सीमा घटाकर केंद्र सरकार ने दिन में तारे दिखाने की कोशिश शुरू की है। हम मानते हैं कि भारी उधारी से निजात पाए बिना कोई भी राज्य, खास तौर पर पर्वतीय प्रदेशों की आर्थिकी नहीं सुधरेगी। इसी विषय पर मुख्यमंत्री की वित्त व पर्यावरण मंत्री से मुलाकातें बताती हैं कि यह कार्य पसीना बहाने का है। मोटे तौर पर हिमाचल के वित्तीय संसाधन पानी, बिजली, वन, पर्यटन तथा आबो हवा के बेहतर इस्तेमाल से ही आएंगे। विकास, अधोसंरचना निर्माण, निजी निवेश और नागरिक सुविधाओं में बढ़ोतरी के लिए जिस जमीन पर हिमाचल खड़ा है, उसके लिए वनापत्तियों की बाध्यता कई सवाल खड़ी करती है। ऐसे में डे बोर्डिंग स्कूलों से हेलिपोर्ट निर्माण तक के संकल्पों में जंगल की भाषा और इसके अर्थ केवल रुकावट डालने के लिए ही गढ़े जाते हैं। सरकार चाहती है कि फोरेस्ट क्लीयरेंस में तेजी लाने के लिए एक स्वायत्त तथा शक्तियों से परिपूर्ण कार्यालय हिमाचल में खुले। हिमाचल को ऋणों से मुक्ति दिलाने के लिए केंद्र की भूमिका अपरिहार्य है।
उधार लेने की सीमा घटा कर भले ही केंद्र वित्तीय चाबुक चला ले, लेकिन पर्वतीय खाल उधेडऩे से पहले यह भी सोच ले कि हिमाचल जैसे राज्य की आर्थिक कमजोरियों की सबसे बड़ी वजह अत्यधिक भूमि को वनों के अधीन करना तथा प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीय योगदान में भरपाई न करना रहा है। पर्वतीय राज्यों के आर्थिक हित सुरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नई नीतियों, परंपराओं, प्रोत्साहनों तथा प्राथमिकताओं को अलग से तय करना होगा। केंद्रीय स्तर पर पर्वतीय विकास के लिए अलग मंत्रालय का गठन अति आवश्यक है ताकि इसके तहत विभिन्न अध्ययनों, शोध व सर्वेक्षण से पहाड़ी विकास के मानदंड, वित्तीय प्रोत्साहन, तकनीक तथा प्राथमिकताओं को केंद्र से माकूल धन आबंटित हो सके। पर्वतीय राज्यों में अधोसंरचना निर्माण, रोजगार के ढांचे के विस्तार, नागरिक सुविधाओं के प्रसार तथा प्राकृतिक आपदाओं की चुनौतियों को तभी समझा जा सकता है, जब एक स्वतंत्र मंत्रालय देश के करीब चालीस पर्वतीय संसदीय क्षेत्रों के अस्तित्व पर सोचना व कार्रवाई करना शुरू करेगा।
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Rani Sahu
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