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ज्ञान-विज्ञान की भाषा के तौर पर उसका व्यवहार बढ़ाकर की जा सकती है।
हिंदी को लेकर संविधान सभा की बहस पर बहुत चर्चा हो चुकी है। संविधान को अंगीकृत करते वक्त सेठ गोविंद दास ने जो कहा था, उसे याद किया जाना बहुत जरूरी है। संविधान सभा में उन्होंने कहा था, 'मुझे एक ही बात खटकती है और वह सदा खटकती रहेगी कि इस प्राचीनतम देश का यह संविधान देश के स्वतंत्र होने के पश्चात विदेशी भाषा में बना है। हमारी गुलामी की समाप्ति के पश्चात, हमारे स्वतंत्र होने के पश्चात जो संविधान हमने विदेशी भाषा में पास किया है, हमारे लिए सदा कलंक की वस्तु रहेगी। यह गुलामी का धब्बा है, यह गुलामी का चिह्न है।' चूंकि सेठ गोविंददास सिर्फ राजनेता नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकार भी थे। हिंदी के प्रति अपने सम्मान और अपने प्यार के ही चलते शायद उन्होंने इतनी कठोर बात कहने की हिम्मत की।
सेठ गोविंद दास जैसी भाषा और हिंदीप्रेमियों की भाषा भले ही न हो, लेकिन हिंदी को लेकर उनकी सोच ऐसी ही है। यह सच है कि मूल रूप से अगर संविधान अपनी भाषा में लिखा गया होता, तो उसका भाव दूसरा होता और उसका संदेश भी। चूंकि आजादी मिलने के बाद लोगों के सामने देश को बनाने का उदात्त सपना था, समूचा देश इसके लिए एकमत भी था। तब हिंदी को सही मायने में सांविधानिक दर्जा दिलाया भी जा सकता था। लेकिन जैसे-जैसे इसमें देर हुई, वैचारिक वितंडावाद बढ़ता गया। वोट बैंक की राजनीति भी बढ़ती गई और जैसे-जैसे राजनीति का लक्ष्य सेवा के बजाय सत्ता साधन होता गया, वैसे-वैसे हिंदी ही क्यों, अन्य भाषाओं की राजनीति भी बदलती गई।
लेकिन किसे पता था कि बीसवीं सदी की शुरुआत में जो दुनिया समाजवाद और मार्क्सवाद के इर्द-गिर्द समाजवादी दर्शन की बुनियाद पर आगे बढ़ने की बात कर रही थी, वह इसी सदी के आखिरी दशक तक आते-आते उस ट्रिकल डाउन सिद्धांत के भरोसे खुद को पूंजीवादी व्यवस्था को सौंप देगी! बाजार ने जैसे-जैसे समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पैठ बढ़ानी शुरू की, खुद को अभिव्यक्त करने और खुद की पहुंच बढ़ाने के लिए उसने स्थानीय भाषाओं को माध्यम बनाना शुरू किया। उसे स्थानीय भाषाएं ही साम्राज्यवादी भाषाओं की तुलना में ज्यादा मुफीद नजर आईं। रही-सही कसर तकनीकी क्रांति ने पूरी कर दी। तकनीक और बाजार के विस्तार के साथ स्थानीय भाषाओं का तेजी से विस्तार हुआ और हिंदी भी उसी तरह बढ़ती गई। उसने अपनी पहुंच और पैठ के इतने सोपान तय किए, जिसे परखने के लिए गहरे शोध की जरूरत है।
कहने को तो हर साल ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में हिंदी के कुछ शब्दों को जगह मिल रही है, इससे हम गर्वित भी होते हैं। जिस साम्राज्यवाद ने हमें करीब दो सौ साल तक गुलाम रखा, जिसने हमारी भाषाओं को गुलाम भाषा का दर्जा ही दे दिया, वे अगर हमारे शब्दों को अपने यहां सादर स्वीकार कर रहे हैं, तो उसके लिए गर्वित होना भी चाहिए। तकनीक ने हिंदी का विस्तार सात समंदर पार तक पहुंचा दिया है। अपने वतन और माटी से दूर रहने वाले लोग अपनी पहचान और अपनी एकता के लिए अपनी माटी को ही बुनियाद बनाते हैं। अब इस बुनियाद में भारतीय भाषाएं भी जुड़ गई हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग भी विदेशी धरती पर खुद की पहचान हिंदी या हिंदुस्तानी जुबान के जरिये बनाने की कोशिश करते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप की अपनी सरजमीन पर भारत-पाकिस्तान के बीच भले ही विरोधी माहौल हो, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप से दूर सात समंदर पार अगर हिंदी हमें जोड़ने का साधन और माध्यम बन रही है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। हिंदी को इस चुनौती को भी स्वीकार करना होगा, ताकि उसका रूप और विकसित हो तथा वह सीमाओं के आर-पार की मादरी जुबान की तरह विकसित हो सके। वैसे जिस तरह बाजार इस मोर्चे पर हिंदी को आधार दे रहा है, उससे साफ है कि हिंदी यह लक्ष्य भी जल्द हासिल कर लेगी। इसलिए उसे तैयार होना होगा। यह तैयारी शब्द संपदा बढ़ाकर, उसकी बुनियादी पहचान बनाकर, ज्ञान-विज्ञान की भाषा के तौर पर उसका व्यवहार बढ़ाकर की जा सकती है।
सोर्स: sampadkiya.com
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Neha Dani
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