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साल भर में गरीब हो गए 6 करोड़ लोग, भारत में केवल 1.3 करोड़ लोगों की कमाई 65 करोड़ आबादी से दोगुनी

jantaserishta.com
22 Dec 2021 3:07 AM GMT
साल भर में गरीब हो गए 6 करोड़ लोग, भारत में केवल 1.3 करोड़ लोगों की कमाई 65 करोड़ आबादी से दोगुनी
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Inequality In India: आर्थिक असमानता (Inequality) यानी अमीरी और गरीबी के बीच की खाई सदियों पुरानी समस्या है. इस समस्या के चलते इतिहास ने सत्ता से लेकर व्यवस्था तक में कई बार बदलाव देखा है.

हाल के कुछ साल में खासकर कोरोना महामारी के बाद यह खाई और गहरी हो गई है. इसी महीने आई एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में यह असमानता अधिक है. भारत उन देशों की लिस्ट में शामिल है, जहां अमीरों और गरीबों के बीच असमानता सबसे अधिक है. कई अर्थशास्त्री इसे भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं (Emerging Economies) के ग्रोथ की राह में बड़ा रोड़ा मानते हैं.
50 फीसदी आबादी की आय राष्ट्रीय औसत की चौथाई
पेरिस स्थित वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब ने इस महीने वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट 2022 (World Inequality Report 2022) जारी की. रिपोर्ट के अनुसार, भारत के टॉप 10 फीसदी अमीर लोगों ने 2021 में 11,65,520 रुपये की औसत कमाई की. दूसरी ओर 50 फीसदी गरीब आबादी को देखें तो इस क्लास में लोगों की औसत आय इस साल महज 53,610 रुपये रही. यह 20 गुना से भी अधिक चौड़ी खाई है. यहां तक कि 50 फीसदी गरीब लोगों की आय 2021 के राष्ट्रीय औसत 2,04,200 रुपये से भी कई गुना कम है.
65 करोड़ लोगों से दो गुना कमा रहे महज सवा करोड़ लोग
रिपोर्ट में और भी चौंकाने वाले आंकड़े दिए गए हैं. देश के टॉप एक फीसदी अमीरों को देखें तो कुल राष्ट्रीय आय में इनकी 22 फीसदी हिस्सेदारी है. अगर टॉप 10 फीसदी अमीरों की बात करें तो यह हिस्सेदारी बढ़कर 57 फीसदी पर पहुंच जाती है. वहीं दूसरी ओर 50 फीसदी निचली आबादी मिलकर सिर्फ 13 फीसदी कमा पाती है. यानी टॉप के 1.3 करोड़ लोग नीचे के 65 करोड़ लोगों की कुल कमाई से लगभग दो गुना पैसे बना रहे हैं.
एक साल में दोगुनी हुई गरीबों की संख्या
इससे पहले प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) ने बताया था कि भारत में एक दिन में 150 रुपये भी नहीं कमा पाने वाले (क्रय शक्ति पर आधारित आय) लोगों की संख्या पिछले एक साल में बेतहाशा बढ़ी है. ऐसे लोगों की संख्या एक साल में ही छह करोड़ बढ़ गई है, जिससे गरीबों की कुल संख्या अब 13.4 करोड़ पर पहुंच गई है. देश में 1974 के बाद पहली बार न सिर्फ गरीबों की संख्या बढ़ी है, बल्कि भारत 45 साल बाद फिर से मास पोवर्टी वाला देश बन गया है.
बड़ी संख्या में गरीब हुए मिडल क्लास के लोग
प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, महामारी से मध्यम वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ है. इसके चलते मिडल क्लास का एक तिहाई हिस्सा गरीबों की श्रेणी में पहुंच गया है और इसमें बड़ा हिस्सा शहरी आबादी का है. ऑक्सफेम इंडिया (Oxfam India) की एक हालिया रिपोर्ट कहती है, ऐसा नहीं है कि महामारी के आने से आर्थिक असमानता की स्थिति उत्पन्न हुई है. यह पिछले तीन दशक से हो रहा है. तीन दशक से अमीरों की संपत्ति बढ़ रही है जबकि गरीब और गरीब होते जा रहे हैं.
इकोनॉमिक ग्रोथ के लिए खतरनाक मानते हैं एक्सपर्ट
सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी एंड पब्लिक फाइनेंस, पटना में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ सुधांशु कुमार का मानना है कि इस तरह की बढ़ती इनइक्वलिटी आर्थिक अवरोध के साथ ही सामाजिक अस्थिरता के जोखिम को भी बढ़ावा देती है. शोध के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आय की असमानता का जीडीपी की वृद्धि दर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. यह असर कम विकसित अर्थव्यवस्था में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अधिक होता है. आर्थिक असमानता श्रम के एक बड़े हिस्से की उत्पादकता को सीमित कर देती है, जिससे आर्थिक विकास के साथ मानवीय विकास के लक्ष्यों पूरी तरह हासिल कर पाना मुश्किल हो जाता है . भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए अभी के हालात में असामनता से उत्पन्न आर्थिक अवरोध से बुरा कुछ और नहीं हो सकता है. नीतिगत प्रयास इस दिशा में ऐसे होने चाहिए कि यह खाई बढ़े नहीं.
नीतियां बनाते समय इग्नोर हो जाता है मिडल क्लास
डॉ सुधांशु ने यह भी कहा कि विकास की नीतियां बनाते समय मध्यम वर्ग को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, खासकर आर्थिक संकट के दौर में. महामारी के दौरान सरकार ने नीतिगत स्तर पर लोगों का सहयोग करने का जो प्रयास किया, उसमें मध्यम वर्ग को काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया. जिसके कारण मध्यम वर्ग का लगभग एक तिहाई हिस्सा गरीबी की श्रेणी में चला गया है. इसके पीछे यह नीतिगत खामी बड़ा फैक्टर है. वर्तमान संकट के दौर में बढ़ती असमानता का असर बहुत दुखद भी हो जाता है. निम्न मध्यम वर्ग के लोग कर्ज के जाल में फंसकर आत्महत्या तक करने पर मजबूर होने लगे हैं. पिछले कुछ समय में आर्थिक कारणों से आत्महत्या के बढ़े मामले, खासकर सामूहिक आत्महत्या यही संकेत करते हैं. ऐसे में आर्थिक के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक दोनों स्तर पर सहयोग की अपेक्षा रहती है.
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